भगवान दास जी का निधन एक बड़ी छति है.---------कवंल भारती, रामपुर.
साभार- सच्ची-मुच्ची, मई,२०११.
भगवान
दास जी दलित साहित्य के सबसे बडे लेखक थे, पर भारत की मीडिया ने जिस तरह उनकी उपेक्षा की, उससे साबित होता है कि
हमारा प्रचार तंत्र अपनी जातिवादी मानसिकता से अभी मुक्त नहीं हो सकता है। आज तीन
दिन बाद भी किसी अखबार और समाचार चैनल ने उनकी मृत्यु का समाचार नहीं दिया।
मैं
भगवान दास जी के सम्पर्क में लेखक के रूप में स्थापित हो जाने के बाद ही आया था।
पर, उनके साहित्य के सम्पर्क
में 1970 के आस-पास अपने छात्र जीवन में ही आ गया था। उन दिनों हमारे शहर में
आंबेडकर मिशन की नयी-नयी शुरूआत हुई थी। उससे पहले हमारे शहर में कोई जानता भी नहीं
था कि कौन आंबेडकर और कैसी जय भीम। जो लोग इस मिशन का काम कर रहे थे, वे चन्द्रिका प्रसाद
जिज्ञासु की पुस्तक ‘बाबासाहेब का जीवन-संघर्ष’ और नकोदर रोड, जालंधर से निकलने वाली लाहौरी राम बाली की ‘भीम पत्रिका’ का वितरण करते थे। ‘भीम पत्रिका’ में ही मैंने पहली दफा
भगवान दास जी का नाम देखा और उनके लेख पढे। यह काफी बाद में पता चला कि ‘भीम पत्रिका’ निकालने की प्रेरणा बाली
साहब को भगवान दास जी से ही मिली थी और उसकी शुरूआत उर्दू में हुई थी। उर्दू अंकों की एक फाइल मैंने दारापुरी
जी के यहॉं देखी थी। यह भी उन्हीं से पता चला कि जिस ‘मैं भंगी हूँ’ पुस्तक से भगवान दास जी
विख्यात हुए उसका धारावाहिक प्रकाशन उर्दू भीम पत्रिका में ही हुआ था।
1973
में,नयी दिल्ली के
रामलीला मैदान में एक विशाल ऐतिहासिक दीक्षा समारोह हुआ था, जिसमें तिब्बत के दलाईलामा
के द्वारा भारत के दलितों को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी गयी थी। मैंने भी उस
दीक्षा-समारोह में भाग लिया था। वहां किताबों के स्टाल भी लगे थे, जहां से मैंने भगवान दास
जी की एक पुस्तक ‘दस स्पोक आंबेडकर’ खरीदी थी, जो उस श्रृंखला का
पहला वाल्यूम था। वह क्राउन आकार में था और उसके कवर का रंग लाल था। वह पुस्तक
1984 तक मेरे पास रही। उस वर्ष मैं लालगंज अझारा, प्रतापगढ में तैनात था, जहॉं मेरे साथ एक ऐसा
हादसा हुआ कि मुझे अपनी बहुत सारी पुस्तकों
और अन्य सामान को वहीं छोडकर आना पडा। उन्हीं में भगवान दास जी वह पुस्तक भी
छूट गयी थी।
मेरी
कमजोरी है कि मैं डायरी नहीं लिखता। इसलिये किससे कब भेंट हुई, इसकी कोई प्रामणिक जानकारी
मेरे पास नहीं रहती। भगवान दास जी से पहली दफा सम्भवत: दिल्ली में उनके निवास पर
ही मैं मिला था।कानपुर के जिस कार्यक्रम में भगवान दास जी और मैं साथ-साथ थे, उसे के.नाथ ने आयोजित किया
था। उसकी तारीख मैंने के.नाथ से पता की। वह दलित साहित्यकार सम्मेलन था, जो 10 नवम्बर,1999 को आयोजित हुआ था।
कानपुर में मैं और भगवान दास जी जैंडिस क्लब में एक ही कमरे मे ठहराये गये थे।
वहॉं उनके साथ कुछ समय गुजारना मेरे लिये गौरव की बात थी। दलित साहित्य और
राजनीति के बहुत से मुद्दों पर मुझे उनसे बातचीत करने का मौका मिला था। हमारी
बातचीत का मुख्य विषय भारत में समाजवाद की जरूरत से शुरू हुआ था और
कांशीराम-मायावती की राजनीति पर खत्म हुआ था।
मेरी
और भगवान दास जी की खानपान की रूचियॉं कुछ अलग थी, यह मैं जानता था। इसलिये, रात का भोजन लेने से पहले
का कार्यक्रम उनके सामने नहीं किया जा सकता था। अत: मैं अभी आया कहकर भगवान दास जी
को कमरे में छोड,नीचे उतरा और बार में जाकर बैठ गया। बार क्लब के सदस्यों
के लिये था, पर मुझसे बैरे ने कुछ नहीं पूछा और जो मैंने
मॉंगा, उसने सर्व कर दिया। बार से निपटकर मैं ऊपर
गया।भगवान दास जी से खाने पर चलने के लिये कहा। खाने की व्यवस्था भी नीचे थी, यह मैं देख आया था। हम दोनों डायनिंग रूम में गये। मैं दाल, सब्जी और रोटी का आर्डर देने ही वाला था कि भगवान दास जी
बोले, मैं सिर्फ चावल लूँगा, रोटी नहीं। उन्हांने बताया, जब से पेसमेकर
लगा है, मैं चावल ही लेता हूँ। मुझे उस दिन पता चला कि
वे हार्ट के वे मरीज थे और उनकी बाईपास सर्जरी हुई थी। वे सचमुच बहुत साहसी और
जीवट के व्यक्ति थे, जो इस बीमारी
में भी यात्रा कर रहे थे और काम कर रहे थे।
कानपुर मं एक दिन के साथ ने मुझे भगवान दास जी को ठीक-ठाक समझने
का अवसर दिया था इससे पहले उनकी जो छवि मेरे दिमाग में थी, वह एक ऐसे लेखक की थी, जो भारत में कम
और विदेश में ज्यादा रहता है, जो एकला चलने
में विश्वास करता है और विदेशों से ढेर सारा रूपया लाकर ठाठ से रहता है। उन्होंने
किसी को अपने साये में आगे नहीं बढने दिया और किसी दलित को अपनी किसी योजना में
शामिल नहीं किया। उस मुलाकात ने इस छवि को तोड दिया था। वे एकला चलते थे, इसमें तो सच्चाई थी, पर वे काफी सहज,सरल और विनम्र ह्रदय इन्सान थे और मार्ग-दर्शन करने में
हमेशा तैयार रहते थे। अपने लेखन के दौरान कई दफा ऐसा हुआ कि मैं डा. आंबेडकर के
संबंध में कुछ चीजों को लेकर कन्फ्यूज हो जाता था, तो समाधान के
लिये मैं भगवान दास जी को ही फोन करता था, उन्होंने हमेशा
मेरे भ्रम का निवारण किया और पूरी प्रामाणिकता के साथ मुझे सही जानकारी दी। कभी भी यह महसूस नहीं किया कि वे मुझसे डिस्टर्ब
हुए हैं या उन्हांने मुझे टालने की कोशिश की है। मैंने अपनी ‘सन्त रैदास-एक विश्लेषण’पुस्तक उन्हीं
को समर्पित की थी। मैंने लिखा था-दलित साहित्य के इतिहास-पुरूष श्री भगवान दास को
समर्पित।‘ जब यह पुस्तक उन्हें मिली तो उनका ध्यान
समर्पण पर नहीं गया और इधर-उधर से पुस्तक को देखकर उसे रख दिया। काफी दिनों बाद
जब उनकी निगाह अचानक समर्पण पर गयी, तो उन्होंने
मुझे फोन किया और धन्यवाद दिया।
तीसरी भेंट भगवान दास जी से मैंने अपने शहर में ही की, जहॉं वे मेरे निमन्त्रण पर हमारे एक कार्यक्रम में आये
थे। जब वे रामपुर आये, तो कार्यक्रम के
बाद वाल्मीकि धर्म समाज के कुछ युवकों ने महर्षि वाल्मीकि को लेकर उनके विचारों
का विरोध किया अैर उनसे बहस करनी चाही।पर, जब भगवान दास जी
ने उन युवकों से बातचीत की, तो युवकों के
पास उनके किसी सवाल का जवाब नहीं था।
भगवान दास जी का जन्म 27 अप्रैल,1927 को जतोग
कैंट शिमला में हुआ था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा शिमला में ही हुई थी, और उच्च शिक्षा पंजाब और दिल्ली में। उन्हांने1968 में
आंबेडकर मिशन सोसाइटी की स्थापना की थी, जिसकी शाखाऍं
भारत के बाहर कनाडा, जर्मनी और इंग्लैण्ड
में भी कायम हुई। कहा जाता है कि जब वे और एल.आर.वाली जिस देश में जाते थे, वहॉं आंबेडकर मिशन की शाखा खोलकर आते थे। वे दलित
सालिडेरिटी पीपुल्स के संस्थापकों में थे। यह संस्था भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल, जापान, श्रीलंका, मलेशिया और
ऐशिया के अन्य देशोंमें विभिन्न धर्मों को मानने वाले अछूतों को जोडने के लिये बनायी
गयी थी। यह उनकी विद्वता का ही प्रभाव था कि वे 1981में एशियन सेन्टर फार हयूमन
राइट्स के निदेशक चुने गये थे। वे 1957 में भारतीय बौद्ध महासभा, 1964 में बौद्ध उपासक संघ और 1978 में समता सैनिक दल से
जुडे थे। उन्हांने 1991 तक समता सैनिक दल के पुनरूत्थान के लिये काम किया। उन्होंने
अपनी पुस्तक ‘डॉ. बाबासाहेब
भीमराव आंबेडकर एक परिचय,एक सन्देश’ समता सैनिक दल के कार्यकर्ताओं को बाबासाहेब के जीवन, और विचारों से परिचित कराने के लिये ही लिखी थी, जिसे समता सैनिक दल, नयी दिल्ली ने
1981 में प्रकाशित किया था।
1981 में ही उनकी बहुचर्चित पुस्तक ‘’मैं भंगी हूँ’’ भीम पत्रिका
कार्यालय,जालंधर से प्रकाशित हो गयी थी, जो अब दलित साहित्य में एक कालजयी कृति बन चुकी है। यह एक
धारावाहिक लेख माला थी, जो भीम पत्रिका
में प्रकाशित हुई थी। यह पत्रिका आरम्भ में उर्दू में ही छपती थी, हिंदी में उसका प्रकाशन बाद में हुआ था। बाद में, भगवान दास जी के सम्पादन में इसके कुछ अंक दिल्ली से
अंग्रेजी में भी छपे थे। जिस समय भगवान दास जी ने ‘मैं भंगी हूँ’ लिखना शुरू की थी, मेहतर समाज पर
कोई भी पुस्तक उपलब्ध नहीं थी। हालांकि रिचर्ड ग्रीव द्वारा ‘दि चूहडा’ और एफ.फनिन्जार
द्वारा ‘दि भंगीज’ पुस्तकें लिखी
जा चुकी थीं, परंतु वे उपलब्ध नहीं थीं। अत:एक तरह से
भगवान दास की पुस्तक ही भंगी जाति पर हिन्दी में पहला काम था। यह भंगी जाति का
सांस्कृतिक इतिहास था, जो उन्होंने
लिखा था। हिन्दी में जब दलित लेखकों ने अपनी आत्मकथाऍं लिखना आरम्भ किया और आत्मकथा
इतिहास की खोज का सिलसिला चला, तो ‘मैं भंगी हूँ’ को पहली आत्मकथा
का दर्जा मिल गया। बहुत से लोगों ने इसे भगवान दास जी की आत्मकथा समझ लिया, जबकि यह एक अछूत जाति की आत्मकथा है। पहली बार भगवान दास
ने ही इस पुस्तक में भंगी समुदाय को वाल्मीकि नाम दिये जाने का खण्डन किया है।
इसी विषय पर उनकी दूसरी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘बाबासाहेब भीमराव आंबडकर और भंगी जातियॉं’ है। बहुधा कुछ लोगों
द्वारा यह प्रचार किया जाता है कि बाबासाहेब ने जो कुछ किया वह या तो
महारों के लिये किया या चमारों के लिये, मेहतर समुदाय के
लिये उन्होंने कुछ नहीं किया था। भगवान दास जी ने इसी आरोप के खण्डन में इस पुस्तक
को लिखा था। यह सचमुच पहली पुस्तक है, जिसमें उन्होंने
स्पष्ट किया है कि किस तरह मेहतर समुदाय को डॉ. आंबेडकर के आन्दोलन से दूर रखने
के मकसद से ‘वाल्मीकि’ बनाया गया। यह
पुस्तक बाबासाहेब और वाल्मीकि समुदाय कें संबंध में दुर्लभ सामग्री का स्त्रोंत
ग्रन्थ है।
भगवान दास जी मूलत:उर्दू और अंग्रेजी के लेखक थे। हिन्दी उन्हें
ज्यादा नहीं आती थी। पर, हिन्दी के व्यापक
क्षेत्र को देखते हुए ही उन्होंने हिन्दी में लेखन किया था। अंग्रेजी में उनका
सबसे महत्वपूर्ण काम है- ‘दस स्पोक
आंबेडकर’ जो पॉंच खण्डों में है। डॉ. आंबेडकर की मूल
रचनाओं के संकलन और सम्पादन का यह काम उन्होंने उस समय किया था, जब आज की तरह उनकी रचनाऍं आसानी से उपलब्ध नहीं थीं।
भगवान दास जी ने जिस दौर में लेखन शुरू किया, वह मुख्यधारा के साहित्य से दलित साहित्य के संघर्ष का
दौर था। यह वह दौर भी, था, जिसमें तथाकथित प्रगतिशील और धर्मवादी लेखक डॉ. आंबेडकर की
वैचारिकी को मार्क्सवाद-विरोधी बताकर दलित पाठकों को भ्रमित कर रहे थे। दलित
लेखकों की ओर से भी इसका ठीक-ठीक प्रतिरोध नहीं हो पा रहा था, ऐसे समय में भगवान दास जी ही थे, जिन्होंने मार्क्सवाद,समाजवाद और मजदूर
वर्ग के विषय में डॉ. आंबेडकर को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया और दलित
चिन्तन समाजवाद को किस अर्थ मे लेता है, इस पर प्रकाश
डाला। इस दृष्टि से उनकी ‘बाबासाहब भीमराव
आंबेडकर एक परिचय, एक सन्देश’ पहली पुस्तक है, जिसमें वे यह
बताते है कि डॉ. आंबेडकर मार्क्स के
विरोधी नहीं थे, बल्कि उसके समर्थक थे और उसके दर्शन को वे
भारत के करोडों दलितों और गरीबों की मुक्ति का दर्शन मानते थे।
भगवान दास जी का बहुत-सा साहित्य अप्रकाशित है। किसी समय उनकी
कहानियॉं ‘सरिता’ में छपा करती
थीं। उन्होंने विश्व के लगभग एक दर्जन विश्वविद्यालयों, विश्वधर्म सभाओं और संगठनों में महत्वपूर्ण व्याख्यान
दिये थे। ये सारे व्याख्यान और पेपर ही पॉंच सौ से ज्यादा हो सकते हैं। कुछ साल
पहले उन्हांने वाल्मीकि पर एक बडी पुस्तक लिखने की योजना बनायी थी, जिसमें वे पाकिस्तान से एकत्र किये गये कुर्सीना मे भी
संकलित करनेवाले थे। कह नहीं सकते कि इस योजना पर वे कितना काम कर गये थे? पर, मुझे लगता है कि
स्वास्थ्य उनका साथ नहीं दे रहा था और वह उसे पूरा नहीं कर पाये थे। अब तो इस
पुस्तक की पूरी रूपरेखा भी उनके साथ ही चली गयी।आज यदि उनकी कहानियों, अप्रकाशित लेखों और व्याख्यानों का ही संकलन कर दिया जाय, तो दलित साहित्य में यह एक बडा काम होगा। उनका जाना सचमुच
एक आघात है। वे दलित साहित्य में बुनियाद के पत्थर थे। दलित साहित्य उनका हमेशा
ऋणी रहेगा।