Saturday, June 28, 2014

उमराव सिंह जाटव की कहानी "गृहिणी"

गृहिणी,   08 मार्च, 2008

मेरी कहानी (सत्यकथा जो मेरे ही घर में घटी )'गृहिणी' जो 'अनभै सांचा ' त्रि-मासिक पत्रिका, दिल्ली में छपी थी और बहुत चर्चित हुई थी. फेस बुक (२८ जून, २०१४) ने पूरी कहानी को पोस्ट नहीं करने दिया. फल यह हुआ कि आधी कहानी ही पोस्ट कर पाया. अब फिर से इसे पोस्ट कर रहा हूँ.

(यह एक कहानी ना होकर श्री उमराव सिंह जाटव जी पर जो बीती है, जो उन्होंने एक नन्हें से पप्पी से लेकर वयस्क हुए कुत्ते के साथ नौ साल का समय बिताया. जैसा उनके मन में ख्याल आया, जो वे उसके साथ महसूस करते थे, उसका वर्णन बहुत ही बेबाकी से और स्पष्टता से किया गया. हम उनके आभारी हैं कि उन्होंने इस मार्मिक व्यथा और अपने मन के भाव व्यक्त किये. साथ ही हमें अपने ब्लॉग पर आज 28 JUNE, 2014 को उन्होंने अपनी प्रिय पप्पी की याद में इसको पोस्ट करने की सहर्ष अनुमति एक क्षण गँवाए बिना दे दी.)--डॉ. सुरजीत कुमार सिंह.



(n fact मुझे आज (28 JUNE) ही क्यों उसकी याद हो आयी. पिछले दो दिनों से मेरी तबियत ठीक नहीं है.बहुत नहीं. बहुत पहले लगभग 40 वर्ष पूर्व जब नौकरी में गया था तब अत्यंत कठिन ट्रेनिंग के दौरान में लगभग दो मंजिल ऊंचाई के मकान से गिर गया था. मेरे बाएं कंधे के जोड़ में चोट आई थी. तब से बारिश के मौसम में मुझे बाएँ कंधे के जोड़ में असह्य दर्द होता है. दो दिन से उसी के दर्द से कराह रहा था. जब स्पन्की जीवित थी तब मुझे यदि सिर दर्द भी हो जाए, बुखार तो दूर की बात थी,मेरे हज़ार भगाने, दुत्कारने पर भी वो मेरे बैड रूम में ठीक मेरे पांवों से सट कर धरना दे देती थी. न जाने वो कैसे जान जाती थी सिर दर्द को भी. आज दर्द से कराह रहा था तो उसकी याद हो आई.)- श्री उमराव सिंह जाटव.


मैं उसे कतई पसंद न करता था लेकिन उसके प्रति मेरे मन में घृणा भी न थी। मेरे अपने घर में पिछले कोई आठ वर्षों से आपसी संबंधों में पसर गई निःसंग निस्बतें , कटुताएं जो अमरबेलसम रिश्तों पर छाई प्रति जाते दिन सौहार्द्र तथा आपसी प्रेम को खाए जा रही थी,के कारण उसके प्रति मेरे मन में अजीब सी निस्पृहता और दुराव घर कर गया था। अपनी खानाबदोश प्रकार की नौकरी के चलते वर्ष में केवल दो-तीन बार ही घर पर आना होता था। वर्ष के उन दो-तीन विरल अवसरों का जितनी अधीरता से मैं प्रतीक्षा करता था उतना ही मेरी पत्नी और बच्चे भी करते थे। अवकाश के वे दिन तब मेरे परिवार के लिए मौज-मेले का रूप अख्तियार कर लेते थे। वे सुख भरे दिन इधर प्रारंभ होते और उधर यूं चुटकी में समाप्त हो जाते। अवकाश की समाप्ती पर दुखी, उदास तथा भरे मन से जब परिवार से विदा लेकर लौटता तब कई-कई दिनों तक अनमना रहता था। लेकिन उस एक के कारण, जो अब जबरन मेरे शयन कक्ष में घुस आई थी उन तसल्ली,सुकून तथा सुख भरे दिनों को ग्रहण लग गया था । 

स्पंकी



























अब न तो मेरी पत्नी और न ही मेरे बच्चे अधीरता से मेरे घर आने की प्रतीक्षा करते थे और न ही मुझे लौट कर घर आने में आग्रह और रूचि रह गई थी। पहले जो वर्ष में तीन चार बार तक भी घर के फेरे लगाता था अब उसके कारण घर की ओर मुंह करने तक की भी इच्छा मर गई थी। मजबूरी में मरे मन से वर्ष में एक आध बार घर आना ही पड़ जाता था। कह ही चुका हूं कि उससे मुझे घृणा कतई तौर पर न थी, बस परिस्थितिजन्य नापसंदगी थी। कई बार सहानुभूति से मेरा मन भर आता तब उसे मैं कभी-कभार पास आ लेने देता था। पिछले लगभग वर्ष-भर से मेरी उससे बिल्कुल बोलचाल बंद थी। लेकिन बिल्कुल एकतरफा। उससे बोलचाल मैंने बंद की हुई थी लेकिन वह बेहद शिद्दत से मेरे आने का इंतजार करती। मेरे घर के भीतर घुसते ही वह मेरे निकट से निकट आने के हजार प्रयत्न और बहाने करती। मेरी सहानुभूति प्राप्त करने के लिए वह दर्जनों प्रकार के तमाषे करती। अजीब-अजीब आवाजें निकालती और कई बार बेहद आक्रामक भी हो उठती थी। अन्य कई सारे कारणों से भी मैं उसे अनदेखा करता रहता था। पत्नी और बच्चों के व्यवहार ने मेरा दिल तोड़ कर रख दिया था। पत्नी और बच्चों पर मेरा वष भी न चलता था। उनके लिए मैं केवल महीने-भर का खर्च जुटानेवाला रोबोट जैसा था जिसकी कोई भावनाएं ,इच्छाएं और अपेक्षाएं न थीं। पत्नी के खाते में मेरे लिए केवल दर्जनों शिकायतों की एक लंबी सूची थी और उसकी उन शिकायतों के बोझ तले दब कर मेरी बोलती बंद थी। वह अक्सर ही इस एक शिकायत से अपने कोसने कोसना प्रारंभ करती कि मैं मुंह में दही जमाए घर में बैठा रहता हूं लेकिने मेरे मुंह खोलते ही उसकी बक-बक जो प्रारंभ होती तो अगले कई घंटों तक उसके बंद होने के आसार दिखाई न देते थे। अपने तानों,व्यंग तथा आक्षेपों की छुरियों पर वह अपमान और घृणा की सान की मिकदार को प्रति आते दिन के साथ बढ़ाती ही चली जाती तब ऐसे अवसरों पर में घर छोड़ कर भाग खड़ा होता था और निरूद्देश्य यहां-वहां भटक कर रात गए घर में घुसता था। कई बार तो छुटिृयों के चार-छः दिन किसी प्रकार काट कर अधूरी छुटिृयों समेत वापस वहीं भाग जाता था जहां से टिकट कटा कर घर आया था। ऐसे अवसरों पर मेरी उस एक के साथ खटपट बढ़ जाती थी लेकिन जितना ही मैं उससे दूरी बनाता वह उतना ही मुझसे और अधिक निकटता के उछाह में भर कर मेरे आगे-पीछे लगी रहती थी। ऐसे में उसकी आंखों में कई प्रकार के भाव आते-जाते थे। उनमें अथाह प्रेम होता था, शिकायतों का ढेर होता था, नाराजगी होती थी तथा अवशता होती थी। सारे भाव उसकी आंखों में गड्डमड्ड नजर आते थे। व्यवहार में बच्चों के समान जिद करती, बराबरी के स्तर पर आ कर क्रोध प्रकट करती। पत्नी और बच्चों की वह लाड़ली थी, उनकी जान उसमें बसती थी। कुछ गलत भी न था क्योंकि वह एक दूसरे के भीतर प्राण बन कर वास करना, दिल बन कर धड़कना दो तरफा था। लेकिन मेरा उसके साथ विचित्र रूप में ‘ लव-हेट ’ अर्थात प्रेम और नापसंदगी का रिश्ता साथ-साथ था। मेरा दिल करता कि उसे उठा कर गोद में भर लूं लेकिन तुरंत ही स्मर्ण हो आता कि मेरे घर में अशांति, जो पिछले आठ बरसों से अयाचित पसर गई है वह, काफी हद तक उसी के कारण है।
उस 8 मार्च 2008। आलस्य-भरी नींद की खुमारी के आगोश में, जो अक्सर ही दोपहर के भोजन के बाद तन पर उतरती है, बिस्तर पर पड़ा था कि वह मेरे शयनकक्ष में घुस आई थी। बल्कि ठीक से कहूं तो कमरे में जबरन घुस आई थी। दरवाजे पर आ कर कुछ क्षण ऊहापोह,असमंजस,झिझक और डर के भाव आंखों में लिए वह खड़ी रही और उसके बाद लंगड़ाती हुई तथा अनिश्चय भरे बहुत ही छोटे-छोटे कदम रखती हुई बिल्कुल मेरे बिस्तर के पाए से सट कर सीधे-सीधे एकटक मेरी आंखों में झांकने लगी। उन आंखों में जो कभी शरारत की चमक से चैंधियाया करती थीं उसकी उन्हीं आंखों में दर्द के हिलोरें मारते समुंदर में मानो ज्वार आ जा रहा था। उन आंखों में मानसिक संताप भी तथा शारीरिक कष्ट भी छलक कर उसके तन पर व्याप्त था। पिछले लगभग एक वर्ष से गठिया का दर्द उसे सता रहा था तथा उसे चलने-फिरने में बहुत कष्ट होता था। ज़ाहिर था कि वह लंगड़ाते-लंगड़ाते किसी प्रकार अपनी आह और कराह को दबा कर मेरे शयन-कक्ष में आई थी। उसकी आंखों में कहने को बहुत कुछ था। उसके कान बहुत कुछ सुनने को आकुल थे। अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए मैंने उसे वहां से दुत्कार दिया। लेकिन वह वहीं जमी रही। वहां मेरे पास रूके रहने के मानो अपने अधिकार का प्रदर्शन करते हुए। उसकी इस ढिठाई पर कुढ़ कर मैंने कपिल,जो मेरा छोटा पुत्र है, को चीख कर आवाज़ लगाई, ‘‘ कपिल! इसे यहां से ले जाओ।’’ 
उसने भी वहीं से चीख कर बताया-‘‘ बहुत बार रोक कर देख लिया है। अब नहीं मानती तो हम क्या करें।’’
‘‘ जो चाहे करो, लेकिन इसे मेरे कमरे से ले जाओ।’’

कपिल बड़बड़ाता हुआ आया और बेहद कठिनता से उसे खींच कर बाहर ले गया। बाद में भी वह बार-बार कमरे में घुसने की ज़िद करती रही। उसके जबरन घुसने के प्रयासों से त्रस्त और क्रोधित मैं पूरे दिन दरवाजा बंद किए अपने कमरे में पढ़ता रहा और मंटो का एक पूरा कहानी संग्रह पढ़ डाला। रात के आठ बजे पत्नी ने ताना मारते हुए बाहर से आवाज लगाई-‘‘ इस बेचारी से बात न करो न सही, बाहर आकर अब खाना तो खा लो।’’ बाहर निकल कर आया तो देखा कि कपिल ने जबरन उसे अपने कमरे में बंद कर दिया था। रसोई में जाकर स्वयं ही मैंने कटोरी-भर दाल और तीन रोटियां उठा लीं और अपने कमरे में घुस गया। भोजन समाप्त कर बर्तन रसोई में रख कर वापस आया तो वह फिर से मेरे कमरे में बैठी थी। उसकी आंखों में न जाने कितनी याचनाएं दृष्टिगत थीं। दिल किया कि उसके सिर पर हाथ फिरा कर उससे कुछ बात करूं लेकिन .... । कपिल इस बार मेरे बिना कुछ कहे ही उसे वहां से ले गया। वह विरोध करती रही लेकिन उसने उसकी न सुनी। मेरी पत्नी लेकिन मेरी इस बेरूखी पर उखड़ गई, भन्ना कर बोली-‘‘ जब से तुम दरवाजा बंद करके अपने कोप-भवन में पड़े हो तभी से बेचारी तुम्हारे दरवाजे से मुंह सटाए बैठी है। उससे दो प्यार के बोल बोल दोगे तो तुम्हारी जुबान घिस तो नहीं जाएगी।’’ मुझ पर अपनी खीज उतारने के बाद वह उसे संबोधित करके बहुत ही मुलायमियत से बोली-‘‘ स्पंकी! जब ये तुझसे बोलते ही नहीं हैं तब तू क्यों इनके पीछे पड़ी है? आजा ... इधर आ... आजा ... हमारे पास बैठ।’’

वह लंगड़ाती हुई ड्राइंगरूम के उस कोने में बैठ कर,जो मेरे शयन कक्ष के निकटतम था, ऐसी आवाजें निकालने लगी जैसे उसे बहुत कष्ट हो रहा हो। मानो कराह रही हो। कपिल और मेरी पत्नी जमीन पर ही उसके पास बैठ गए और उसे पुचकारने लगे। कपिल एकदम से उठ कर अपनी मम्मी से बोला-‘‘ मम्मी, स्पंकी को आज मीट खिलाते हैं। खा कर इसका मूड ठीक हो जाएगा। अभी तो केवल रात के साढ़े आठ बजे हैं, दुकान अभी खुली होगी। मैं पंद्रह मिनट में लेकर आता हूं।’’
उसके प्रति दोनों के चोचलों को देख और सुन कर मैं अपने कमरे में पड़ा जल-भुन रहा था। अगले एक घंटे में ही उन्होंने उसके लिए शोरबेदार मीट बना कर उसे खिला दिया। पहले वह खा न रही थी लेकिन कपिल और उसकी मम्मी के आग्रह,प्यार,लाड़-दुलार की प्रबल बाढ़ में पड़ कर अनमने भाव से उसने थोड़ा सा शोरबा पिया, बोटियां खाने से उसने स्पष्ट इंकार कर दिया। उस सब को देख-सुन कर असहनीय क्रोध के आवेग में जल-भुन कर मैंने धड़ाम से अपना दरवाजा बंद कर लिया और लगभग जबरन नींद बुला कर सो गया। कितनी देर सोने के बाद .... शायद पांच घंटे की नींद के बाद अचानक ड्राइंगरूम से पत्नी का आर्तनाद सुनाई पड़ा- ‘‘.... स्पंकी ..... स्पंकी ... अरी मेरी स्पंकी... उठ... उठ.... स्पंकी बेटा ... आंखे खोल ... आंखे खोल ... स्पंकी ... मे...री... बेटी’’ एक झटके में ही मेरी नींद खुल गई। मेरी पत्नी को नींद में चलने की तो नहीं लेकिन नींद में जोर-जोर से चीखने की बीमारी है, वह अक्सर ही नींद में इस प्रकार चीखती है मानो कोई उसका गला रेत रहा हो। तब वह -‘ भाई... जी .. भाई जी.. ’ चीखती है। अपने पिता को वह भाई जी संबोधन से पुकारती है। पहले सोचा वही नींद में चीख रही है सो करवट बदल कर सोने लगा। लेकिन ... । उठ कर लाइट जलाई। देखा कि दीवार घड़ी आधी रात कब की गुजर जाने के बाद सुबह के तीन बजा रही थी। हड़बड़ाता हुआ बाहर आया तो ....

9 मार्च 2008 प्रातः तीन बजे । 
वह ड्राइंगरूम के फर्श पर आराम की मुद्रा में अपने अगले दोनों पंजों पर अपना मुंह टिकाये बैठी थी जैसे वह हमेशा ही बैठती थी। वह प्रसन्न होने पर इसी मुद्रा में आंखे झपकाती हुई घंटों तक बैठी रहती थी। तब वह घर के पूरे कार्य-कलाप पर अपनी पैनी नजर रखती हुई एक-आध झपकी भी ले लेती थी। लेकिन तनिक सी भी आहट होने पर, दरवाजे के सामने से किसी के गुजर जाने भर पर अथवा केवल दरवाजे पर किसी के खड़े होने भर पर वह चिहुंक कर उठ बैठती थी। तब उसके कान सीधे आकाश की ओर खड़े हो जाते, पूंछ खड़ी हो जाती उसकी मूंछों के बाल स्टील के तारों समान तन जाते, पहले एक बार वह धीमे से गुर्राती उसके बाद अगले ही क्षण अपनी दहाड़ जैसे भूंकने से घर भर को थर्रा देती थी। उसके अगले क्षण बिजली की गति से वह दरवाजे पर होती थी और तब तक भूंकना बंद नहीं करती जब तक आगंतुक डर कर भाग न जाए जो अधिकांशतः फेरीवाले ही होते थे। यह सब बस कुछ ही क्षणों में वह कर गुजरती थी। जान-पहचान का कोई आए तब उसे जबरन पकड़ कर कपिल के कमरे में बंद करना पड़ता था। 

जब भी अवकाश पर घर आता हूं यह सब देखता रहता हूं। पूरी कालोनी में उसकी दहशत के चलते हमारे घर की ओर कोई झांकता तक नहीं है। कई बार तो यार-दोस्त-रिश्तेदारों तक ने आने से इंकार कर दिया-‘ नहीं भाई, नहीं आ सकते। तुम उसे पकड़ कर रखोगे लेकिन उसकी दहाड़ ही इतनी दहशत पैदा करने वाली होती है कि अच्छे-भले स्वस्थ आदमी को दिल का दौरा पड़ जाय।’ नीचे भू-तल वाले चैधरी साहब से कोई सात वर्ष पूर्व जब एक बार मैंने दिल्ली के असुरक्षित माहौल को ध्यान में रखकर कहा था-‘‘ चैधरी साहब मेरे बच्चे अकेले रहते हैं। आप तनिक उनका ध्यान रखना।’’ उन्होंने पलट कर तथा आश्वासित करते हुए कहा था-‘‘ अरे सिंह साहब, आप को तो चिंता करने की आवश्यक्ता ही नहीं है जब तक आपके घर में स्पंकी है। आपके घर की ओर तो नजर उठा कर देखने वाला वही हो सकता है जिसे अपनी जान प्यारी न हो। फेरी वाले तो मारे उसकी दहशत के आपके तो क्या हमारे घर तक भी नहीं आते हैं। उन्हें देख कर वह बाल्कनी से अथवा आपके घर के भीतर से ही जब दहाड़ती है तो मारे दहशत के वे अपनी ठेली तक को छोड़ कर भागने को तैयार हो जाते हैं। आप तो निश्चिंत रहिए। लेकिन सिंह साहब हैरानी की बात तो यह है कि वही जो घर के दरवाजे पर आहट सुनते ही दरवाजा तोड़ कर चीर-फाड़ कर देने को आतुर हो जाती है तब दुनियां की सबसे निरीह प्राणी जैसी दिखती है जब प्रतिदिन सुबह-शाम कपिल अथवा सुनील उसे टट्टी-पेशाब के लिए नीचे लेकर आते हैं। तब वह दुनियां के सब से सीधे-साधे कुत्तों को भी मात देती नजर आती है। सिर झुकाए ,पूंछ नीचे किए, कान ढलकाए जब वह उनके पीछे-पीछे चलती है तो देखने वाला दृश्य होता है। कोई उसके पास से भी गुजर जाए तो कपिल-सुनील के पैरों में ही घुसने लगती है मानो घबरा कर। सहसा विश्वास ही नहीं होता कि यह वही खूंखार कुत्ता है। इस लिए बच्चों की ओर से आप निश्चिंत रहिए। वह आपके घर की रक्षक ही नहीं है बल्कि मालकिन है, गृहिणी है आपके घर की।’’ सुन कर मुझे भी बेहद हैरानी हुई थी। 

मन ही मन मैं हंसा था यह सोच कर-‘‘ हुंह... गृहिणी ! जब सचमुच की गृहिणी ने जीते-जागते पति के ऊपर एक कुत्ते को तरजीह दे दी है तो .... ।’’ मन ही मन लेकिन मैं उसके प्रति सहानुभूति से भी भर गया यह सुन कर कि उसके रहते मुझे बच्चों की सुरक्षा की ओर से निश्चिंत हो रहना चाहिए। लेकिन जो चैधरी साहब ने बताया उससे भी अधिक हैरान करने वाला काम तो वह बाहर से घर लौटने पर करती थी जिसे चैधरी साहब भी नहीं जानते थे। जब छुटट्ी में घर आया करता हूं तब उसके उस कारनामे को मैं देखता रहा हूं। सुबह-शाम जब वह बाहर से घूम-फिर कर आती थी तब आते ही पहले तो वह पानी पीती थी उसके पश्चात् उसकी वह अविश्वसनीय सर्कस के कलाकारों को भी मात कर देनेवाली ऐक्रोबैटिक कलाबाजियां प्रारंभ होती थीं। उसके भाग-दौड़ करने लायक घर में केवल बैठक थी जो लगभग पच्चीस फुट लंबा और कोई पंद्रह फुट चैड़ा संकुचित सा एक गलियारा भर है जो सोफा, सेंटर टेबल रखे होने के कारण और भी संकुचित स्थान प्रस्तुत करता है। लेकिन उसने उसका भी तोड़ आविष्कृत कर लिया था। पानी पीते ही वह कूद कर सोफा पर चढ़ जाती उसके बाद एक लंबी छलांग में सोफा की पहली कुर्सी पर, दूसरी छलांग में दूसरी कुर्सी पर उसके पश्चात् एक लंबी छलांग में सीधे ही मेरी पत्नी के दरवाजे पर, कूद कर उसके बिस्तर पर उसके बाद फिर से एक लंबी छलांग और अगले ही क्षण मेरे कमरे में और बिस्तर पर, फिर से एक बेहद लंबी छलांग और पूरे ड्राइंगरूम को बिजली की गति से पार करती हुई कपिल के कमरे में,उसके बिस्तर पर तथा एक और छलांग में वापस सोफा पर। उसकी उन छलांगों और दौड़ को मैं इस लिए विस्तार में बता रहा हूं कि जितनी देर में मैंने इनका वर्णन किया है उतनी देर में वह लगभग इस पूरी प्रक्रिया के चार चक्कर लगा चुकती थी। उसकी गति इतनी तीव्र होती थी कि देख कर दहशत होती थी। कपिल एक-दो बार उसे रोकने का दुस्साहस करने के क्रम में जब उसके सामने पड़ा तो धड़ाम से गिरा था। उसे रोकना लगभग असंभव था। उसके शरीर में असीम ताकत थी। मैं स्वयं भी एक बार उसे रोकने के प्रयास में धड़ाम से पटकी खा चुका था। उसके दौड़ने से सोफा और बिस्तरों पर दाग पड़ जाते थे जिसके कारण में उससे और भी द्विगुणित ख़फा था। लेकिन अपनी इन कलाबाजियों पर रोक लगाने को वह कतई तैयार न थी। कई बार तो लगता मानो हम सब को खिजाने-भर के लिए ही वह बीच में भी जब चाहे उस ऊधम को शुरू कर देती थी, अपने सुबह-शाम के उस बंधे-बंधाए कार्यक्रम के अलावा भी! हैरानी की बात यह भी थी कि सुबह-शाम जब वह बाहर जाती तब कपिल-सुनील के उकसाने, प्रेरित करने पर भी वह कतई तौर पर दौड़ने को उद्यत न होती थी। वहां से वापस लौटने पर घर में घुसते ही वह पानी पीती, अपनी कलाबाजियों की धींगामस्ती करती और पुनः एक बार और पानी पीती तथा थक कर बिल्कुल इसी प्रकार जिस प्रकार वह अब बैठी है अपने आगे के दोनो पंजों पर अपना मुंह रख कर आंखें मिचकाती हुई कोई घंटे भर तक टुकुर-टुकुर पूरे घर को, परिवार को ताकती रहती। बीच में छोटी-मोटी झपकी भी ले लेती लेकिन घर के दरवाजे पर तनिक सी भी आहट होते ही कूद कर दरवाजे पर पहुंच जाती और अपनी दिल दहला देने वाली भूंक से बाहर वाले को तो दिल के दौरे का अंदेशा उत्पन्न कर ही देती स्वयं हम घर वालों के कानों में दर्द होने लगता। शरीर से वह बहुत भारी और तगड़ी थी। मेरे लाख उसे नापसंद करने के बावजूद जब भी मैं घर आता तब वह उछाह में कूद-फांद करती हुई पिछले पैरों पर सीधी खड़ी हो कर मेरा मुंह चाटने लगती तब उसके दोनो अगले पैर मेरे कांधों पर रखे होते इसी से उसके ऊंचे कद का अंदाजा लगाया जा सकता है। मैं लाख उसके इस चूमा-चाटी पर ऐतराज जताता लेकिन वह जब तक अपनी सी न कर लेती शांत न होती थी। पत्नी और बच्चे शिकायत भरे लहजे में कहते ’- यह हमें तो इस प्रकार कभी प्यार नहीं करती है।’ पहले मैं सोचता था कि वे मुझे खुश करने के लिए वैसा कहते थे लेकिन धीरे-धीरे जाना कि वे सच कहते थे। 

मैं जितना ही उससे दुराव रखता उसका मुझसे लिपटना-चिपटना,चूमना-चाटना बढ़ता जाता। हां बड़े बेटे सुनील से भी वह कमोबेश ऐसे ही लाड़-दुलार करती थी जब वह अपने काम से लौट कर घर आता था। उन दिनों वह गुड़गांव के एक काल सेंटर में नौकरी करता था। वह अभी घर से सौ कदम दूर ही होता कि वह जान लेती कि वह आ गया है, भूंक कर वह सारे घर को बता देती कि दरवाजा खोलो, स्वयं भी जा कर दरवाजे से लग कर खड़ी हो जाती। मेरा घर मुख्य सड़क से एकदम सटा सा है और उस पर मिनट-भर में चार-पांच कारंे,बाइक,बसें इत्यादि गुजरते हैं, उनकी आवाजों से निःशब्दता के दो क्षण भी मुहाल लेकिन सुनील जब अपनी बाइक पर सवार आता तब भी वह उसकी बाइक की आवाज को पचासों अन्य बाइकों-कारों-बसों की आवाज में से पहचान लेती और दौड़ कर दरवाजे पर खड़ी हो जाती। उसे हम सब अपनी विशिष्ट काल बैल कहते थे। सुनील और मैं ही नहीं घर का कोई भी सदस्य घर से बाहर यदि गया हो तो उसके वापस लौटनेे के लगभग दो-तीन मिनट पहले ही वह भौंक कर बता देती कि फलां लौट कर आ रहा है दरवाजा खोलो। उसकी इन दर्जनों विचित्र प्रतिभाओं का मैं, उसे नापसंद करने के बावजूद, कायल था। दिल करता उसे पुचकारूं,प्यार करूं, उसके सिर पर हाथ फिरा कर उसे सहलाऊं लेकिन ... । 
और आज 2008 मार्च की 9 तारीख है और वह ..... 
स्पंकी

लेकिन नहीं मुझे 9 मार्च 2008 से नहीं वहीं से बात शुरू करनी पड़ेगी जब उसने मेरे घर में आकर पहले ही दिन से उसका अधिग्रहण कर लिया था। ठीक पहले ही दिन से वह मेरे इस घर की मालकिन बन बैठी थी। और उस पहले ही दिन से मैं उसे, घृणा की सीमाओं को लगभग छूते, नापसंद करने लगा था। तारीख तो याद नहीं लेकिन वर्ष 1999 का जुलाई का महीना था। मेरी तैनाती तब त्रिपुरा राज्य की राजधानी अगरतला में थी। जुलाई माह से भी बहुत पूर्व वहां बारिश का मौसम आ धमकता है। मैं अगरतला में था तथा त्राणदायी वर्षा उमस और गर्मी दोनों से राहत दिलाती, आ पहुंच चुकी थी। दिल्ली, जहां मेरा घर है, की भीषण और दुर्दांत गर्मी से त्रस्त दो माह के लंबे अवकाश के बाद त्रिपुरा की सीली-सीली आबोहवा में लौटना स्वर्ग से कमतर न था। अकेले दिल्ली की मारक गर्मी ही न थी जो दिल्लवासियों को प्रतिदिन दहशत में डाले रख रही थी, अलसुबह समाचारपत्र हाथ में आते ही इस एक भय में पन्ने पलटते झिझक होती थी कि आज न जाने कौन सी नई मनहूस और डरावनी खबर पढ़ने को मिलेगी- .... तिमारपुर में पूरे परिवार की हत्या.... तिलकनगर में नौकर ने मालिक का गला रेता ... शाहदरा में चार वर्ष की बच्ची का बलात्कार .. कनाट प्लेस में केवल रास्ता न देने भर पर एक कार चालक ने दूसरे कार चालक पर गोली चलाई... सीमापुरी में पुलिस के जवानों ने डाका डाला... इत्यादि- इत्यादि। उस दो माह के अवकाश की पूरी अवधि में मेरी पत्नी लगातार दोहराती रही थी कि दो बच्चों के साथ दिल्ली में अकेली स्त्री के लिए रहना कितना असुरक्षित था। मैं उससे पूर्णतः सहमत था लेकिन मेरी खानाबदोशों जैसी नौकरी के चलते वह भी और मैं भी दोनो ही असहाय थे तथा केवल दिल्ली पुलिस को कोसने के अलावा कुछ करने वाली स्थिति में न थे। सो अब दिल्ली की गर्मी और दहशत उपजाते समाचारपत्रों की दहशत भरी खबरों से त्राण पा कर अगरतला में अलसाया सा बिस्तर पर पड़ा था। बाहर खूब तेज बारिश हो रही थी। भीषण झकोरों की ताकत के सामने लान में खड़े चार-पांच नारियल के वृक्ष धरती तक आधे झुक कर वर्षा के उद्दाम वेग के सम्मुख ‘ बर सरे ख़म ’ सलाम करते प्रतीत हो रहे थे। ठंड से कपकंपाती हवाएं भाग कर घर-भर में घुस गई थीं और उन्होंने अपने साथ मुझे भी ठिठुरा दिया था। दिल्ली की गर्मी के बाद उस ठंड को सुस्वागतम कह कर मैंने दिन में ही सुरूर का आयोजन कर लिया था। लेकिन मन में यही घूमता रहा कि वहां परिवार किस प्रकार गर्मी में तप रहा होगा। कहते हैं कि दूर कोई आपको स्मर्ण करे तो हिचकी आती है। हिचकी तो न आई फोन की घंटी आ गई। दूसरी ओर मेरी पत्नी थी। उसने घर-परिवार की राजी-खुशी का विस्तृत विवरण देने के पश्चात् कहा-‘‘ बच्चे कुत्ता पालना चाह रहे हैं, क्या पाल लें?’’
‘‘ न, अपना फ्लैट भू-तल पर होता तब भी कोई बात थी लेकिन पहली मंजिल पर अपना फ्लैट है जिसके कारण तुम्हें तो असुविधा होगी ही उस निरीह प्राणी को भी परेशानी होगी। बच्चों को समझा दो।’’ मैंने समझाते हुए कहा।
पत्नी लेकिन सुनते ही भड़क गई-‘‘ तुम तो सारा साल घर से बाहर रहते हो, दिल्ली में देखते नहीं किस प्रकार अकेले रहना असुरक्षित हो गया है! हत्या,चोरी,डकैती रोज की घटनाएं हो गई हैं। प्लीज, हम कुत्ता पाल लेंगे तो अनजान आदमी को घर का दरवाजा खटखटाने से पहले दस बार सोचना पड़ेगा।’’
असहाय मैंने हथियार डालते हुए मरे मन से कहा-‘‘ अच्छा ठीक है, छोटी नस्ल का पाॅमरेरियन पाल लो, उसे लाना-ले जाना,घुमाना,खिलाना-पिलाना आसान रहेगा।’’

पत्नी ने लेकिन बताया कि बच्चे जिद कर रहे हैं कि वे जर्मन शेफर्ड नस्ल का कुत्ता पालेंगे। सुन कर मैं आपे से बाहर हो गया क्योंकि जानता था कि जर्मन शेफर्ड नस्ल का कुत्ता बहुत भारी-भरकम होता हैं तथा आक्रामक भी। इस नस्ल का कुत्ता अपने स्वामी के सिवाय अन्य किसी को पास तक न आने देता है, उसकी खुराक एक अच्छे-खासे पहलवान जितनी होती है, उसे प्रतिदिन यदि दो-तीन किलोमीटर दौड़ने का व्यायाम करने को न मिले तो वह चिड़चिड़ा और आक्रामक हो जाता है, अजनबियों तथा आगंतुकों पर टूट पड़ना उसकी ज़ाति फितरत में होता है तथा इसी जन्मजात गुण अथवा दुर्गुण के कारण उसे भेड़-बकरियों-चरागाहों तथा बड़ी इमारतों की रखवाली के लिए प्रयोग किया जाता है साथ ही सेना तथा पुलिस इस नस्ल को खोजी कुत्ते के रूप में प्रयोग करते हैं। किसी घुसपैठिए को क्षण-भर में चीर-फाड़ देना जर्मन शेफर्ड नस्ल के कुत्ते के लिए साधारण सा काम है। इस लिए मैंने सख्त शब्दों में पत्नी को बता दिया-‘‘ इस बात को खत्म समझो। बच्चों को बता दो कि आगे से कुत्ता पालने की चर्चा भी न करें।’’
पत्नी ने उधर से चीखते हुए कहा-‘‘ हमने तो पपी खरीद भी लिया है, जर्मन शेफर्ड नस्ल का।’’ पपी माने कुत्ते का पिल्ला।

निश्चित ही सुन कर मैं भन्ना गया कि क्या वह मेरा ही घर है जिसके लिए हजारों किलामीटर दूर खतरों से खेलता मैं उनके लिए सम्मानित जीवन के इमकान मुहैय्या करा रहा हूं? कुत्ता इनके लिए मुझसे भी अहम हो गया! मैं केवल उनके लिए पैसा कमानेवाला एक रोबोट हो गया हूं। मन में सोचा कि बहुत हुआ-अब मैं घर के स्वामी के समान बात करूंगा। फोन पर पत्नी से कहा-‘‘ अच्छी प्रकार जान लो कि मेरे घर में या तो मैं रहूंगा या वह कुत्ता रहेगा। कल फोन करके मुझे बता देना।’’ कह कर मैंने संतोष की एक सांस ली कि गृहस्वामी के समान बात करके मैंने समस्या को जड़ से ही समाप्त कर दिया था। लेकिन मुगालते में मैं भूल ही गया था कि किस्से कहानियों के उस नायक का हश्र क्या हुआ था जो मित्र से सुहागरात को बिल्ली काट देने की कथा सुन उसी क्रिया को शादी के वर्ष-भर बाद कर देने पर अपनी दुर्गति को न्योता दे बैठा था। लगता था पत्नी ने उसी कथा से प्रेरणा लेते हुए मामले को कल तक के लिए लटकाए रखना उचित न जान साथ के साथ ही फोन पर बता दिया-‘‘ हम तो कुत्ता ही पालेंगे।’’ कह कर उसने उधर से फोन काट दिया। 

सुन कर मैं सन्न रह गया था। मेरे अपने ही घर में मेरी स्थिति कुत्ते से भी नगण्य! उसी घर में जिसके सम्मानजनक प्रबंधन के लिए हजारों किलोमीटर दूर जंगलों में खट रहा हूं! किस्से-कहानियों में वर्णित पतिव्रता पत्नियों पर से भी मेरा विश्वास क्षण-भर में भस्मीभूत हो कर व्योमचारी हो गया। क्या वे सब कथाएं झूठी थीं अथवा उनके लेखक झूठे थे! कदाचित दोनों ही झूठे थे। लेकिन मुझे अपनी मां की याद हो आई- वह तो ऐसी न थी। दोनों ही स्त्रियां थी तब दोनों की सोच में इतना अंतर क्यों है? क्या मैं अच्छा पति नहीं हूं? क्या मैं अच्छा पिता नहीं हूं? क्या मैं अच्छा इंसान नहीं हूं? शायद ऐसा ही होगा तभी तो एक कुत्ते की तुलना में तुच्छातितुच्छ साबित हो गया हूं! एक कुत्ते की तुलना में! मैं बहुत कम पीता हूं लेकिन उस दिन बहुत पी और पड़ रहा। दूसरे दिन उठने पर और एक बार मनन किया। अपनी हेय स्थिति को जान कर समझ कर तय कर लिया कि अब वह मेरा घर कहां रहा। उस कुत्ते का हो गया जिसे मेरे ऊपर तरजीह दी है मेरी तथाकथित पतिव्रता पत्नी ने, दो तथाकथित बेटों ने! सोचा अब उस घर में न जाऊंगा। लेकिन न जाऊंगा तो कहां रहूंगा? 

जो भी हो मैंने अपने वे वर्ष-भर में तीन-चार बार घर जाने के दौरे पूर्णतः निरस्त कर दिए और सोच लिया कि जब तक अतिअनिवार्य न होगा घर न जाऊंगा। लेकिन बमुश्किल दो माह भी न बीते थे कि सरकारी कार्य से दिल्ली आना हो ही गया। घर पहुंचने का कुछ भी उछाह न था इस लिए बिना पूर्व सूचना दिये ही पहुंच गया। दरवाजे पर काल बैल बजाते ही वह खुल गया। कपिल ने दरवाजा खोला था,तब वह तेरह-चैदह बरस का था। दनदनाता मैं अपने कमरे की ओर जाने लगा तब अचानक अपने पैरों में कुछ गोलमटोल-रूई के फाहों जैसा नर्म-नाजुक सा कुछ महसूस किया। झुक कर नीचे देखा। हल्के कत्थई रंग का बेहद छोटा सा गोल-मटोल कुत्ते का पिल्ला था। वह मेरे जूतों को चाटने का प्रयत्न कर रहा था। बहुत ही प्यारा। मैंने उसे जो कुछ वह करना चाह रहा था करने दिया। वह मेरे जूतों के तस्मों से उलझ गया। अपने छोटे से मुंह के छोटे-छोटे दांतों से वह उन तस्मों को मानो अपना शिकार अथवा शत्रु मान कर भंभोड़ने लगा। दिल किया उस प्यारे से बच्चे को उठा कर गोद में रख लूं लेकिन तभी ध्यान में आया कि अवश्य यही वह कुत्ते का बच्चा है जिसकी तुलना में मुझे हेय सिद्ध किया गया है। अपने पैर झटक कर मैं अपने कक्ष में चला गया। रूई की गेंद के समान वह भी लुढ़कता हुआ मेरे पैरों में घुस जाने को आतुर पीछे लग गया। 

मैंने आगे कोई प्रतिक्रिया न दिखाई तो उसने अपनी बेहद पतली आवाज में भूंकना शुरू कर दिया। मानो आक्रांता को अपने घर से भगा रहा हो। मैंने जोर की एक डांट उसे लगाई तो उसने वहीं मेरे कमरे में पेशाब कर दिया तब जाना कि वह मादा थी। मैंने और द्विगुणित कुपित हो कर चीख-पुकार मचाई कि इसे वहां से ले जाए कोईं। पत्नी आई और उसे उठा कर ले जाने लगी साथ ही उसे छोटे बच्चों के समान दुलारते हुए समझाने लगी-‘‘ अरे रे.. रे , पापा के कमरे में सूसू कर दिया... बहुत बुरी बात .. स्पंकी .. बहुत बुरी बात है।’’ तब जाना कि उसका नाम स्पंकी था। पत्नी ने आ कर कमरा साफ कर दिया। बता भी दिया कि इसका नाम स्पंकी है और तीन महीने की है। खरीदा नहीं है आर के पुरम के किसी जान-पहचान वाले से लिया है। इत्यादि। दो माह के लंबे अवकाश पर आया था। उन दो महीनों में उसकी बालसुलभ चेष्टाओं,शरारतों ने मन मोह लिया, मन ही मन मैं उसे प्रेम करता लेकिन बाहरी तौर पर उसे दुत्कारता-दुरदुराता रहा। 

अगले वर्ष जब पुनः छुटृी पर आना पड़ा और दरवाजे की काल बैल बजाई तो दरवाजा खुलने पर एक कद्दावर कुत्ते को अपनी आंखों में झांकते पाया। वह वर्ष-भर में ही लगभग पूरे कद की हो गई थी। पत्नी और बच्चों ने अपनी हैरानी जाहिर करते हुए बताया कि-‘‘ वर्ष-भर पूर्व जब छुटृी काट कर गए थे तब तो यह बेचारी नन्ही सी जान थी लेकिन आश्चर्य है कि इसने आपको स्मर्ण रखा हुआ है अन्यथा तो दरवाजे के नजदीक भी कोई आ जाए तो आगंतुक को चीर-फाड़ने को आतुर यह लकड़ी के दरवाजे पर ही हमला बोल देती है। आप आए तो यह भौंकी तक नहीं।’’ स्पंकी मेरे आने के बस कुछ ही क्षण शांत रही और उसके पश्चात् मानो कुछ याद हो आया हो, वह उछल-उछल कर मेरा मुंह चाटने का प्रयत्न करने लगी। तब तक उसका कद उतना नहीं हुआ था कि आज के समान सहज ही मेरे कांधों पर अपने पंजे जमा कर जबरन मेरा मुंह चाटने लगे। उसे मैंने बेरूखी से हटा दिया तो वह मानो बिसूरती हुई सी बैठक के एक कोने में बैठ कर मुझे निहारने लगी। देखने में वह बहुत प्यारी लग रही थी। बहुत दिल कर रहा था कि धरती पर उसके साथ बैठ कर उसे पुचकारूं लेकिन ... । उसकी तुलना में मुझे तुच्छ प्रमाणित कर दिया गया था इस का खयाल आते ही मन में कड़वाहट उतर आती थी। मेरी छुटिृयों का यही वह वकफा था जब पड़ोसी चौधरी साहब ने मुझे बताया था कि किस प्रकार वह मेरे घर की, परिवार की दुर्दांत रक्षक थी और कि उसके रहते मेरे घर की ओर किसी को आंख उठा कर देखने तक की हिम्मत न थी। और यह कि जिस प्रकार उसने मेरे घर को अपने अधिकार में ले लिया है और वह निश्चित रूप में मेरे घर की गृहिणी थी। इत्यादि ... । सुनकर आश्वस्त तो अवश्य हुआ, उसके प्रति सम्मान से मन भर गया लेकिन वही कि उसकी तुलना में मैं तुच्छातितुच्छ घोषित और प्रमाणित किया जा चुका था .... । 

अगले सात वर्षों तक मैं वर्ष-भर में केवल एक बार आता रहा। पत्नी-बच्चों और उससे मेरी अनबन जारी रही। पड़ोसी चैधरी साहब और मेरी पत्नी-बच्चे हर बार दोहराते रहे कि किस प्रकार असुरक्षित दिल्ली में मेरा परिवार उसकी संरक्षा में चैन की नींद सोता है। वह मुझसे स्नेह भरा संबंध बनाने के अपने प्रयत्नों की जिद पर अड़ी रही। एक बार के अवकाश के वकफे में जब मैं बैठक में बैठा टी.वी. देख रहा तब पहले तो वह मुझे चूमने-चाटने के अपने लगे-बंधे आयोजन में विफल होने के बाद अचानक रबर की बाल मुंह में दबा कर लाई और मेरे सामने धरती पर रख कर मुझे देखने लगी। मैं निस्पृह भाव से उसे अनदेखा करता हुआ टी. वी. देखता रहा। तब वह अपने दाहिने पंजे से मेरी पेंट कुरेदने लगी। मैंने उसे दुत्कार दिया। देख और सुन कर मेरी पत्नी ने ताना मारते हुए कहा-‘‘ क्या तुम्हारी सब भावनाएं मर गई हैं? निरीह जानवर तुमसे प्यार से बात करना चाह रही और तुम उसे दुत्कार रहे हो।’’ 

अनमनेपन से मैंने उसके सिर पर हाथ फिरा दिया। बस, उसके बाद तो उसने मेरा मुंह चाट-चाट कर पूरा गीला कर दिया। उसकी वह बाल मैंने उठा कर कपिल के कमरे की ओर फेंक दी कि उसका पीछा करती हुई वह चली जाय। वह अवश्य उसके पीछे दौड़ती हुई गई और फिर से उसे उठा लाई तथा मेरे सामने धरती पर रख कर मेरी आंखों में झांकने लगी। बच्चों ने बताया कि आज कल यह उसका पसंदीदा खेल और टाइमपास का तरीका है। अगले वर्ष आया तब मुझे उसके उस नए खेल का स्मर्ण हो आया। चलते-चलते उसके लिए टेनिस की छः बाल खरीद लीं। घर आ कर जब वे बाल उसके सामने लुढ़काईं तो उसने कोई प्रतिक्रिया न प्रकट की और बस मेरे मुंह की ओर देखती रही। बच्चों ने बताया कि उसने अपने खेल का तरीका अब बदल दिया है। अब वह इनके पीछे नहीं दौड़ती है। अब लेटेस्ट खेल यह है कि .... अभी वे बताने की प्रक्रिया में ही थे कि बाकी उसने स्वयं ही बता दिया, फर्श पर पड़ी एक बाल उसने मुह में दबाई और मुंह उठा कर मेरी ओर देखने लगी। बच्चों ने बताया कि यह कह रही है कि उसके मुंह से इस बाल को छीन कर तो दिखाओ! मैंने अपने अंगूठे और उंगलियों में बाल कस कर बहुतेरी खींची लेकिन उसकी ताकत के सामने हथियार डाल दिए। इस पर वह बहुत संतुष्ट दिखाई दी। स्वयं ही उसने बाल फर्श पर रख दी और फिर से उठा कर मेरी ओर चुनौती भरे अंदाज में ताकने लगी। मैंने जब ध्यान न दिया तो वह आक्रामक सी मुद्रा में पहले धीरे-धीरे उसके बाद जोरों से गुर्राने लगी। पत्नी ने बताया-‘‘ आज-कल इसका यही शगल है। जब तक खेल कर इसका दिल न भर जाए इसी प्रकार जबरदस्ती करती है। प्लीज, दो चार बार इसका यह खेल पूरा कर दो नहीं तो इसी प्रकार गुर्राती रहेगी। अवश हो कर दिया। रात में बच्चे चाकलेट खरीद लाए साथ ही आईसक्रीम भी। पूरा घर खाने बैठा तो उसकी प्लेट में भी परोस दिया। मुझे बहुत बुरा लगा। बच्चों और पत्नी को क्रोधित नजरों से घूरते हुए कहा-‘‘ यह जानवर है, जानवरों के समान ही रहने दो। तुम्हारे ये चोचले मुझे कतई पसंद नहीं है। क्या तुम जानते हो कि अपने देश में लगभग बीस प्रतिशत लोगों को दो वक्त का भोजन भी मयस्सर नहीं है और तुम कुत्ते को चाकलेट खिला रहे हो!’’

सुनकर पत्नी ने कहा-‘‘ क्या करें, हम जान ही न पाए कि कब यह कुत्ते से हमारे घर की सदस्य बन गई और इंसान भी बन गई। अब बस यह बोल ही नहीं सकती है बाकी तो हम और ये दोनों ही आपस में खूब बातें कर लेते हैं। यह हमारी बात आसानी से समझ लेती है और हम इसकी। जो कुछ भी हम खाते हैं वही खाने की जिद करती है। क्या करें हमारा बच्चा है अब यह। जो चाहे कहो हम अब इसे दुबारा से कुत्ता नहीं बना सकते हैं।’’ वह देर तक उसके किस्से बखानती रही कि उसकी कौन-कौन सी आदतें इंसानों जैसी हैं। सुन कर मैं जलता-भुनता रहा। उनके कहे पर अविश्वास भी करता रहा। स्पंकी इस सब से बेखबर हमारे कदमों में बैठी ऊंघती रही लेकिन जैसे ही उस वार्तालाप में उसका नाम आता उसके कान सीधे खड़े हो जाते और वह मुंह उठा कर हमारी ओर देखने लगती। आईसक्रीम का दौर चला तो वह उठ कर बैठ गई। बच्चों ने आईसक्रीम उसकी प्लेट में परोस दी। क्षण-भर में उसे चट करने के बाद वह और की मांग करते हुए कपिल की ओर देखने लगी। उसने उसे प्यार से झिड़क दिया-‘‘ नहीं, स्पंकी और नहीं। तुम अपने हिस्से की खा चुकी हो।’’ अपना सिर नीचे झुकाए वह मानो बिसूरने लगी। अपने दुराव को थोड़ी देर के लिए भूल कर मैंने बच्चों से कहा-‘‘ थोड़ी और देदो।’’ सुनील ने अपनी प्लेट से एक चम्मच बराबर भर कर उसके सामने परोस दी। अगले दिन यही सब कुछ डिब्बाबंद पनीर के साथ हुआ। उसे देख कर मैं चिढ़ गया। मेरा मूड बिगड़ा देख कर पत्नी ने बताया-‘‘ डिब्बाबंद पनीर में तो इसकी जान बसती है।..’’ पनीर का नाखून बराबर टुकड़ा दिखाते हुए कहा-‘‘ बस, इतने भर के लिए इससे कुछ भी करा लो। इसकी महक भर से गहरी नींद में भी होगी तो झटके से जग जाती है। मांस इसे पसंद है लेकिन दोनो ंमें से एक को चुनना पड़े तो पनीर को ही चुनेगी।’’ 

मैंने ताने भरे शब्दों में कहा-‘‘ और क्या-क्या खाती है तुम्हारी यह कुति.. ’’ लेकिन कहते मैंने अपनी जुबान काट ली। पत्नी उसे अपना बच्चा बता चुकी थी। शुक्र है कि पत्नी का ध्यान स्पंकी के गुण-गान करने में था सो आगे बताया-‘‘ क्या खाती है नहीं यह पूछो क्या नहीं खाती है?’’ उसने उसकी पसंद की सारी हरी सब्जियों के नाम गिना दिए,सारे फलों के नाम गिना दिए, सारे ठंडे पेय गिना दिए। अविश्वास से मैंने कहा ठंडा पेय भी? पत्नी ने लेकिन अपनी सूची पूरी न की थी सो अपनी रौ में आगे बोली-‘‘ जानते हो हरा मटर कैसे खाती है! हरी मटर की फली को मुंह में रख कर कुतरती रहती है और सारे दाने खा कर कुचली हुई फली हमारे सामने रख देती है।’’ उछाह में भरी पत्नी ने कपिल को आवाज लगा कर कहा-‘‘ कपिल हरी मटर देना स्पंकी को।
उसने लाकर अपनी मम्मी को दे दिए। वह एक-एक फली उसे देती रही और स्पंकी सचमुच ही मटर के दानों को खा कर छिलके उसके सामने ढेर लगाती रही। पत्नी ने स्पंकी को संबोधित करके कहा-‘‘ स्पंकी मूली खाओगी?’’
आकांक्षा में वह पूंछ हिलाने लगी। पत्नी के गुण-गान राग से तंग आ कर मैंने कहा-‘‘ क्या नहीं खाती है,यह भी बता दो।’’
‘‘ धनिया के पत्ते भी मटर के ही समान खाती है मांग-मांग कर, पत्ते सब खा जाती है और डंठल सामने ढेर कर देती है। हां, पोदीना इसे कतई पसंद नहीं है। एक दिन खा लिया था तो देर तक छींकती फिरी। तब से पोदीना को देखते ही मुंह फिरा लेती है। और जानते हो अपने जन्मदिन पर केक भी खाती है’’

सुनते ही मेरे तन-मन में आग सी लग गई। चिढ़ कर कहा-‘‘ खाती नहीं है तुम उसे खिलाती हो,यह कहो। जन्मदिन ही क्या जिस दिन तुम खिलाओगी वह केक खा लेगी। अभी मंगा लो तो अब भी खा लेगी। इस मुल्क में लोगों को दो वक्त की रोटी नसीब नहीं है और यहां कुत्तों को केक खिलाए जा रहे हैं।’’ इस बार मैं अपने पर नियंत्रण न रख पाया। उसे कुत्ता कह ही दिया। मेरा मूड देख पत्नी भी कान दबाए चुप हो रही। लेकिन जो सुरक्षा वह मेरे परिवार को दे रही थी उसके प्रतिफल स्वरूप मैं मन ही मन स्पंकी को प्यार करने के उपरांत भी बाहर से उसे दुत्कारता रहा। वही कि एक जानवर को मेरे ऊपर तरजीह दी गई थी। जब भी मैं उसे देखता मेरा खून खौलने लगता कि यही वह जानवर है जिसकी तुलना में मुझे ...... । लेकिन मेरे पीछे मेरे परिवार को अपनी संरक्षा में लेकर जो वह उन्हें सुरक्षित रखे थी उसके लिए हमेशा ही उसे मन ही मन धन्यवाद देता। लेकिन वही ... । अगली बार अवकाश ले कर आया तो देखा कि बैठक में सोफा के ऊपर उसका गद्दा बिछा है। सहज ही समझ गया कि इस बार उसने सोफा को भी ... कतई अच्छा न लगा। उसने जब मेरा मुंह जबरन चाटने का अपना आयोजन पूरा कर लिया तब मैंने अपनी नाराजगी इस बात पर पत्नी और बच्चों से जताई। उन्होंने अवशता में कहा-‘‘ क्या करें, अब तो यह जान बूझ कर तथा जिद करके सोफा पर बैठती है। न बैठने दें तो गुर्राती है, काटने को दौड़ती है यद्यपि कभी काटा नहीं है लेकिन उस मुद्रा में देख कर तो डर लगता है।’’
पड़ोसी चैधरी साहब से मिलना हुआ तो उन्होंने फिर से अपना वही जुमला दोहराया-‘‘ भई सिंह साहब, आपके घर को तो स्पंकी संभाल रही है। किसी की हिम्मत नहीं ..’’ इत्यादि-इत्यादि। और कि आपके घर की गृहिणी है वह तो। 

29 फरवरी 2008 को मैं सेवानिवृत हो कर घर आ गया। पहुंचते ही स्पंकी का वही मान-मनुहार, उछाह में मेरा मुंह चाटना इत्यादि हुआ। वह आठ वर्ष की हो चुकी थी तथा कुत्तों के जीवन के अनुसार अब प्रौढ़ावस्था को भी पार करने की तैयारी में थी। जानवरों के डाक्टर से वर्ष में दो बार बिना नागा उसको आवश्यक टीके लगाए जाते रहे थे। डाक्टर के अनुसार उसका स्वास्थ्य अच्छा था। गठिया की परेशानी उसे बेशक पिछले एक वर्ष से सता रही थी लेकिन उसकी उम्र के अनुसार कुछ अजूबा न था। डाक्टर उसे इसकी दवा दे रहा था जिससे दर्द से उसे निजात मिल जाती थी। मुझे स्थाई तौर पर घर लौटे नौ दिन हो चुके थे। उस में अब वह पहले वाली चुहलबाजियां तो न थीं लेकिन अन्यथा वह वैसी ही थी। वह अब भी मटर की फलियों को कुचल कर दाने खा लेती थी और कुचली फलियों को हमारे सामने ढेर लगा देती थी। अब भी उस की सर्वप्रिय पनीर के प्रति कमजोरी वैसी ही थी। अब भी वह मेरे लाख विरोध के बावजूद किसी प्रकार उचक कर कांखती-कराहती सी मेरा मुंह चाट ही लेती थी। 

और आज 9 मार्च 2008 का दिन है। प्रातः के तीन बजे हैं। पत्नी का आर्तनाद सुनाई पड़ा- ‘‘.... स्पंकी ..... स्पंकी ... अरी मेरी स्पंकी... उठ... उठ.... स्पंकी बेटा ... आंखे खोल ... आंखे खोल ... स्पंकी ... मे...री... बेटी तुझे क्या हो गया है।’’ 
भागता गिरता पड़ता मैं अपने कमरे से बैठक में आ गया हूं। वह ड्राइंगरूम के फर्श पर आराम की मुद्रा में अपने अगले दोनों पंजों पर अपना मुंह टिकाये बैठी है जैसे वह हमेशा ही बैठती थी। प्रसन्न होने पर वह इसी मुद्रा में आंखे झपकाती हुई घंटों तक बैठी रहा करती थी। मुझे देखते ही मेरी पत्नी स्पंकी से चिपट गई-‘‘.... स्पंकी ..... स्पंकी ... अरी मेरी स्पंकी... उठ... उठ.... देख पापा आए हैं.... उठ बेटा.. उठ.. हमें छोड़ कर तू कहां जा रही है... बेटा .......।’’ 

मुझे विश्वास नहीं हो रहा है। वह बिल्कुल शांत मुद्रा में बैठी है अपने अगले दोनों पंजों पर अपना मुंह टिकाए। कल रात ही तो वह मेरे कमरे में घुसने के लाख प्रयत्न कर रही थी और मैं उसे दुत्कार रहा था। मैं अपने को अपराधी महसूस कर रहा हूं। बार-बार अपने को कोस रहा हूं। सोच रहा हूं कि काश केवल एक बार वह अपनी आंखें खोल कर मेरी ओर देख ले तो मैं उससे कह पाऊं कि मैं उसका धन्यवादी हूं, अहसानमंद हूं, उपकृत हूं और यह भी कि मैं उसे नापसंद नहीं करता हूं। काश जाते-जाते में उससे कह पाता। कर्मफल-पुनर्जन्म-फनम में मैं कतई विश्वास नहीं रखता हूं लेकिन सोच रहा हूं कि क्या कल रात वह जानती थी कि कल दिन निकलते न निकलते वह हम सब को छोड़ कर चली जाएगी! कैसे? कैसे! फर्श पर मैं उसके मृत शरीर के पास बैठ गया हूं। प्यार से उसके सिर को सहला रहा हूं। स्पंकी.. स्पंकी पुकार कर रो रहा हूं। पत्नी और कपिल अविश्वास से मेरी ओर देख रहे हैं लेकिन आंसू झूठे नहीं होते हैं, आर्तनाद भी झूठा नहीं होता है। पत्नी और मैं आर्तनाद कर रहे हैं। कपिल एक ओर खड़ा रो रहा है। सुनील संयुक्त राष्ट्र अमेरीका में नौकरी कर रहा है सो सुबकते-सुबकते कपिल ने उसे फोन करके बता रहा है। सुनील फोन पर रो रहा है। 

पत्नी का विलाप मेरा हृदय चीर रहा है। मुझे संबोधित कर वह शिकायत और तथ्यपरक लहजे में कह रही है-‘‘ चली गई वह... तुम्हारी स्पंकी चली गई .. तुम्हारे घर को, तुम्हारे बच्चों को उसने आठ साल अपनी संरक्षा में सहेज कर रखा था। अब तुम आ गए हो ना इस लिए चली गई कि लो संभालो अपना परिवार। अब मेरी आवश्यक्ता नहीं रही। दोनों में से एक ही तो घर में रह सकता है ना। तुम्ही ने तो कहा था। शर्त में बांध दिया था उसे। वह तो इंसान नहीं थी कि शर्त तोड़ कर खयानत करती। अब तुम आ गए हो इसे वह जानती थी। तुम उसे क्षमा कर देते, शर्त-मुक्त कर देते तो वह रूक जाती।’’ फिर वह उसे पुचकारने लगी है-‘‘ स्पंकी न जा... हमें छोड़ कर ना जा .. देख पापा अब तुझसे नाराज नहीं हैं... तुझे शर्त-मुक्त कर रहे हैं ...पापा रो रहे हैं।’’
एक कुत्ते के लिए पूरा परिवार रो रहा है! मैं सोच रहा हूं के क्या मेरे मरने पर कोई रोएगा? 
मैं कवि हूं। लिखता हूं और अपनी कविताओं पर दाद पाता हूं। मेरी अधिकांश कविताएं विप्लवकारी पृकृति की तथा बगावत का संदेश देने वाली हैं। अफलातूनी,अनर्गल,दमनकारी धर्म तथा धर्मशास्त्रों के विरूद्ध। गरीबों को सप्रयास भूखे रख कर स्वयं अपने महलों में पसरे नाक तक भोजन ठूंसने वाले तथाकथित अभिजात्य समाज के विरूद्ध। आदमी को भूखा रख कर कुत्तों को बिस्कुट जिमानेवालों के विरूद्ध। वे सारी कविताएं मुझे याद आ रही हैं। ......... ‘ कुत्तों को पुचकारने वालो ... आदमी को दुत्कारने वालो... थू है तुम पर ’ ... ‘ कुत्तों को तो गोद बिठाएं .... चूमें चाटें और इतराएं .... चींटी कउवों को भोज जिमायें ... भूखे मानव नज़र न आयें.... जो आवारा बंदरों,कुत्तों,गधों...सुअरों के दुख में बिलबिलाते हैं ’ 

आज 9 मार्च 2008 का दिन है, कल 10 मार्च को एक काव्य-गोष्ठी में मुझे कुत्तों को तो गोद बिठाएं ..... कविता का पाठ करना होगा क्योंकि इस कविता को आग्रह के साथ सुना जाता है। मैं असमंजस में हूं लेकिन आज मुझे खीज नहीं हो रही। क्रोध तिरोहित हो गया हैं। मैं जानता हूं कि यह अस्थाई है, क्षणिक है तथा जल्दी ही मैं अपने उस पुराने स्थाई-भाव में लौट आऊंगा क्योंकि मेरा और मेरे समाज का दुख और पीड़ा सदियों पुरानी है जो एक स्पंकी की मृत्यु से धूमिल होने वाली नहीं है। लेकिन आज मैंने अपनी सारी कविताओं के लिए मन-मस्तिष्क तथा हृदय के द्वार पर ताले ठोंक कर तखती भी टांक दी है ‘ डाॅन्ट डिस्टर्ब प्लीज ’... ‘ यह आम रास्ता नहीं है ’। मैं हैरान नहीं हूं कि आज मुझे खीज नहीं हो रही उसके पिज्जा खाने पर, कोल्ड ड्रिंक पीने पर, पनीर खाने पर मुझे उसके प्रति अपकर्षी विचारों के बवंडर झकोर नहीं रहे हैं। तो क्या वह कुत्ता नहीं थी? बिलाशक वह कुतिया ही थी-चार पांवों वाला चैपाया थी वह। लेकिन घर की सदस्य बन चुकी थी। उसका गृहिणीत्व उसके कुत्तेपन पर भारी था। 

पत्नी का विलाप रूक नही रहा है। उसने फ्रिज से रात के बचे हुए मीट की प्लेट निकाल ली है और मुझे दिखा रही है। वह मुझे इंगित कर बता रही है-‘‘ मेरी स्पंकी जाते-जाते अपनी पसंद का खाना खा कर गई है।’’ ‘‘ इतनी छोटी सी थी जब हम उसे लेकर आए थे..।’’ अपने हाथों की हथेली का आकार बना कर वह दिखाती है। ‘‘ उसकी आंखें बस तभी-तभी खुली थीं। दूध पीना नहीं आता था उसे बोतल से। सुनील तब अपनी उंगली दूध में भिगो कर उसे चटाया करता था।’’ इत्यादि.. इत्यादि। 
सुबह के सात बज गए हैं। दोगुने रेट पर पैसे देकर जो टैक्सी मंगाई थी वह आ गई है। दफनाने के लिए उसे राजागार्डन स्थित संजय गांधी .(पशु चिकित्सालय)..... ले जाना है। रास्ते में फूल खरीदने का प्रयत्न किया लेकिन कहीं नहीं मिले। प्रायश्चित स्वरूप अपराधबोध से दबा मैं टैक्सी की पिछली सीट पर उसे अपनी गोद लेकर बैठने की जिद करता हूं। कपिल और पत्नी समझ जाते हैं। बैठ लेने देते हैं लेकिन दोनों की गोद में, मेरी और कपिल की गोद में। हम दोनों की गोद में वह बिल्कुल शांत लेटी है अपनी सारी शररतों, ऊधमों को भूल कर। सहसा विश्वास ही नहीं हो पा रहा है कि स्पंकी इतनी सीधी-साधी भी हो सकती है। मुझे लगता है कि वह अचानक उठ कर मेरा मुंह चाटने लगेगी। 
मोड़ काट कर टैक्सी संजय गांधी .... पहुंच गई है। 
संजय गांधी ..(पशु चिकित्सालय)... 

उसके प्रिय कंबल में लपेट कर दफनाना चाहते हैं लेकिन कर्मचारी मना कर देते हैं। कर्मचारी उसके चिर-विश्राम के लिए गढ़ा खोद चुका है। टांगों से खींच कर वह उसे उस गढ़े में उतार देना चाहता है। धक्का देकर मैं उसे हटा देता हूं। भौंचक वह मुझे कुपित नजरों से देख रहा है। कपिल और मैं गृहिणी के भारी शरीर को सावधानी और कोमलता से उस गड्ढ़े में सुला देते हैं। अंतिम बार हम तीनों स्नेह से उसके सिर पर हाथ फिराते हैं। कर्मचारी हैरानी से हमें देखता हुआ जल्दी करने को कह रहा है। आगे बढ़ कर वह फावड़े से मिटृी डालने को तत्पर होता है तो मैं उसे रोक देता हूं। कपिल और पत्नी से कहता हूं-‘‘ आओ हम स्पंकी को विदा करें। मिटृी डालें।’’ उसके मृत शरीर पर मिटृी डालते हुए हम तीनो ही रो रहे हैं। मैं अपने आप को रोक नहीं पाता तथा अवशता में सुबक कर जोरों से कह उठता हूं-‘‘जाओ गृहिणी..... जाओ.. अब मैं आ गया हूं।’’ 
कर्मचारी हैरानी से पहले मेरी ओर देखता है फिर पूरे परिवार की ओर। एक कुत्ते को इस प्रकार विदा होते हुए उसने नहीं देखा है शायद।

उसी टैक्सी में हम वापस घर लौट रहे हैं बिना स्पंकी के। घर लौट कर मैं पुनः अपनेपन में लौटने का प्रयत्न करता हूं। लेकिन बिना गृहिणी के घर भांय-भांय कर रहा है। मैं अवश हूं। जानता हूं कि अपने असली रंग में आने में मुझे दिन-महीने लगेंगे। मैं फिर से वही कविताएं लिखने लगूंगा।
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