Saturday, June 10, 2017

कहीं से भी आ ओ मेरे बिरसा...




सब तेरी बाट जोहते हैं,
जिस दुष्कर राह पर तू चला
वह राजमार्ग बनकर बसा है
तुम्हारी यादों की तरह..
नंगी रातों में,
दहशत का साम्राज्य होते हुए भी
जैसे कि असंख्य तारों के बीच हो चांद..।
मैं जब कभी
आश्रमशाला में जाता हूं
बच्चे मुझसे पूछते हैं-
‘काका,बिरसा कहां रहते हैं ?’
तब मैं बच्चों की उस
निश्चल भाषा में
उत्तर न देकर
बन जाता हूं गुनहगार..।
बच्चे रोज रटते हैं
तेरे ही नाम की वर्णमाला
शायद तुम बतियाते होगे
बच्चों के सपनों में उतरकर
बताते होगे रहस्य..
पर वे तमाम लोग क्या करें
जो उन बच्चों की ही तरह
तुम्हारी राह देख रहे हैं ?...।
सबेरे-सबेरे चक्की चलाती हुई मां
गाती है तेरे ही गीत
मैं सुनता रहता हूं आंखे बंद किए..
पहाड़ों से उतरती औरतें
जो गीत तेरे गाती हैं
हमेशा लेती हैं कसम
तुम्हारे लिए
उन्हें भी लेता हूं मैं आंखों में उतार..।
लोग केवल गीत ही
नहीं गाते तेरे
वे सुनते हैं,
बोलते हैं..
मरते हैं-
घर,बाहर, पाठशाला,बाज़ार
मोर्चा और जंगल में
एक क्रांतिकारी बदलाव के लिए..।

सच में इनमें से किसी ने
तुमको नहीं देखा होगा
मैंने भी नहीं..
लेकिन केवल तुम ही हो
जो हमारे विद्रोह में
अकेले दिशा देते दिखाई देते हो..
उस समय तुझे जल्दबाजी हुई थी
गोरों को खदेड़ने की खातिर ?
सिंहभूमि,मंडला,वसई
चन्द्रपुर को करने को आज़ाद ?
बचाने के लिए हरे-भरे जंगल ?
आज ना गोरे हैं
न सपनों का साम्राज्य
ना घने जंगल हैं
ना तू है
है केवल जंगलों में फैलता असंतोष
और होठों पर तेरा नन्हा-सा गीत-
ऊलगुलान ! ऊलगुलान ! ऊलगुलान !
जो बन गया है
अब हमारा सांस्कृतिक आंदोलन..।
सच बताऊं, अब हमें जल्दी है
किंतु नहीं चाहते अब हम
ओढ़ी हुई सभ्यता
धिक्कारते हैं अन्धकार को
जंगल को बांटने वाली
दलाली प्रथा को
नकार है हमारा..।

गूंजती हैं घाटियों में पीछा करती आवाजें
बिरसा, तुम्हें कहीं से भी
कभी भीआना होगा..
घास काटती दरांती हो या
लकड़ी काटती कुल्हाड़ी
खेत-खलिहान की मजदूरी से
दिशा-दिशाओं से
गैलरी में लाए गए गोटुली रंग से
कारीगर की भट्टी से
यहां से वहां से
पूरब से
पश्चिम से
उत्तर से
दक्षिण से
कहीं से भी आ ओ मेरे बिरसा
खेतों का हरा-भरा बयार बनकर
लोग तेरी ही बाट जोहते हैं...।।।
---- भुजंग मेश्राम


(मराठी के सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी आदिवासी कवि भुजंग मेश्राम की प्रसिद्ध कविता।)