Tuesday, November 22, 2011

दलित विरोध का प्रगतिशील अध्याय

दलित विरोध का प्रगतिशील अध्याय


मुद्राराक्षस, वरिष्ठ साहित्यकार

याद रखना होगा कि इस संगठन को अरसे तक अपनी मर्जी से चलाने वाले रामविलास शर्मा दलित विमर्श के कट्टर विरोधी थे

1936 में यानी आज से पचहत्तर साल पहले प्रेमचंद की अध्यक्षता में हुई थी पल्रेस की स्थापना। वह भारतीय साहित्यिक इतिहास का एक गौरवशाली अध्याय था। हालांकि प्रेमचंद उस वक्त हिंदी के शिखर रचनाकार माने जा चुके थे लेकिन उनके इस सम्मेलन के अध्यक्ष बनाए जाने की बड़ी वजह थी उनका उर्दू भाषा में भी सर्वमान्य कथाकार होना। उन दिनों और उसके बाद भी यह संगठन उम्दा और कद्दावर रचनाकारों का बड़ा मंच बना रहा था। मंटो, कृश्न चंदर, राजेंद्र सिंह बेदी, मजाज और फैज अहमद फैज जैसे कालजयी लेखकों ने इस संगठन को बुलंदी दी थी। लेकिन बाद में डॉ. रामविलास शर्मा ने इसका ऐसा कचरा किया कि उनके दौर में इसे विघटित ही करना पड़ा। याद रखना होगा कि इस संगठन को अरसे तक अपनी मर्जी से चलाने वाले रामविलास शर्मा दलित विमर्श के कट्टर विरोधी थे। वैसे तो जिस कम्युनिस्ट आंदोलन से यह प्रगतिशील लेखक संघ जुड़ा रहा, वह पार्टी खुद भी दलित विमर्श को एक निर्थक वैचारिकता मानता रहा है और उसके नेताओं ने अकसर दलित प्रश्न को साम्राज्यवादी साजिश ही घोषित किया है। लेकिन पिछले कोई तीन दशकों में उत्तर भारत में दलित चेतना के उभार के बाद पार्टी अपने प्रस्तावों में एक पैरा बेमन से ही सही इस मसले को जोड़ती रही है। यह देखना दिलचस्प है कि प्रगतिशील लेखक संघ ने दलित प्रश्न को अछूत ही बनाए रखा। जिस तरह कम्युनिस्ट आंदोलन न कभी डॉ. अंबेडकर या फुले का नाम लेना मुनासिब नहीं समझा, उसी तरह प्रगतिशील लेखकों की दुनिया में इनका कोई निशान नहीं मिलेगा। बल्कि अकसर इन बहुत बड़े विचारकों को साम्राज्यवादी और अंग्रेजपरस्त भी कहा गया बिना इनके विचारों की अर्थवत्ता पर कोई ध्यान दिए। यह सचमुच हैरानी की बात है कि रामविलास शर्मा से लेकर वर्तमान चर्चित लेखकों ने कभी इस बात की जरूरत नहीं समझी कि वे डा. अंबेडकर या फुले को समझें, पहचानें। देश के अनेक दलित विचारकों ने कम्युनिस्ट आंदोलन को ब्राह्मणों की विचारधारा से जोड़ा है। यह बात सच भी रही है कि अजय घोष, नंबूदरिपाद, पीसी जोशी से लेकर डांगे तक सारे बड़े और प्रभावशाली नेता ब्राह्मण ही रहे हैं और शायद यही वजह है कि किसान और मजदूर की बातें जोर-शोर से करने के बावजूद उन्होंने दलित प्रश्न को ठीक उसी नजर से देखा जिस नजर से सवर्ण समाज दलितों और पिछड़ों को देखता रहा है। उनकी सवर्ण मानसिकता बराबर उन पर हावी रही है। अभी हाल में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ ने अपनी हीरक जयंती के मौके पर जो बड़ा सम्मेलन किया उसकी अध्यक्षता इस संगठन के वर्तमान अध्यक्ष ने की। वे आलोचक के रूप में खासे विख्यात हैं और इस दृष्टि से अपने भाषण में उन्होंने दलित विमर्श पर जो विचार व्यक्त किए वे इसी सवर्ण-मानसिकता को जाहिर करते हैं जो देश में दलित समाज सदियों से झेलता आया है। संस्कृत में एक धर्मसूत्र सिर्फ दलित जातियों से ही संबंधित है- कमलाकर भट्ट कृत शूद्र कमलाकर। दलित विरोधी अन्य विचारों के अलावा उसमें यह बात बहुत विस्तार से लिखी गई है कि किसी विद्वान व्यक्ति को शूद्र के बारे में सोचना भी वर्जित और गर्हित है। प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष अपने परिवारजनों और अपनी घोषणाओं के अनुसार कुलीन क्षत्रिय हैं। क्षत्रिय कुलीनता की अकसर चर्चा करने वाले उक्त आलोचक ने इस सम्मेलन में दलित विमर्श को सिरे से खारिज कर दिया। यह देखकर किसी को हैरानी हो सकती है कि वे ही नहीं इस प्रगतिशील प्रजाति के अन्य लेखक भी इसी कुलीनताग्रंथि के शिकार हैं। विनाथ त्रिपाठी को आप क्या कहेंगे? गनीमत है कि प्रगतिशीलों के बीच एक अपवाद मौजूद हैं वीरेंद्र यादव लेकिन अगर वे भी दलित प्रश्न के पक्ष में न लिखते तो यह संगठन शायद ज्यादा सुखी होता क्योंकि वीरेंद्र के विचार प्रगतिशील परंपरा से बाहर पड़ते हैं।

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