Sunday, December 21, 2014

राजमार्गों को चार लेन बनाने के बहाने घटती-मरती खेती और कटते पेड़...!!!


          आज ही अपने दोनों गृह जनपद रामपुर और बरेली से दिल्ली लौटा हूँ. यूँ तो घर मैं साल-दो-साल में जाता ही हूँ और दिल्ली-लखनऊ राष्ट्रीय राजमार्ग-२४ को चार लेन के बनाने की ख़बरें और उसको बनते देखता ही रहा हूँ, किश्तों में ही सही.! लेकिन इस बार जो अनुभूति हुयी वह सब आपके साथ साझा कर रहा हूँ. 
मेरा मन दिल्ली-लखनऊ राष्ट्रीय राजमार्ग-२४ को चार लेन का बनता देखकर बहुत ही उचट गया है, ह्रदय बहुत अधिक काँप गया है. एक वितृष्णा सी हो गयी है, सड़क के इस चौडीकरण से कि आखिर किस कीमत पर हमारी सरकार और उसके विभाग गंगा-युमना की वह उपजाऊ जमीन को क्रांकीट की सड़कों से पाट डाल रहें हैं. जो जमीन देश की सबसे अधिक उपजाऊ जमीन है, उसकी यह हाल और बर्बादी कर रही हैं, हमारी यह सरकारें.? किसानों की जमीन उनकी मर्जी के बिना ले ली गयीं हैं, उनको जो मुआवजा मिला है वह मंहगाई की भेंट चढ़ गया है. अब ना वह उनके पुस्तैनी जमीन है और ना वे पैसे.? 
      दिल्ली-लखनऊ राष्ट्रीय राजमार्ग-२४ पर मेरा बचपन बीता है. उस सड़क के कई किलोमीटर प्रतिदिन मैंने साईकिल चलाकर अपनी पढ़ाई पूरी की है. मेरे और मेरे सहपाठियों के लिए वह केवल एक सड़क ना होकर मेरे सपनों और हौसलों की एक नयी उड़ान हमेशा से रही है. जो जीवंत है, गतिशील है और आधुनिकता से हमारा परिचय प्रतिदिन कराती रही है. देश-प्रदेश का औद्योगिक-आर्थिक विकास और आधुनिकता को मैंने और मेरे सहपाठियों ने किताबों से अधिक इस राजमार्ग पर साईकिल चलाते हुये सीखा है. तब इस राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे-किनारे कभी खत्म ना होने वाली उनकी लाइनें. उस समय यह सारे पेड़, झुरमुट भरे आकाश को होड़ लगाते बहुत बड़े और विशाल तनों वाले पेड़ हुआ करते थे, जो पाकड़-युक्लीप्ट्स-शीशम-आम-जामुन के थे. सबके सब पेड़ काट डाले गये हैं. कहीं कोई वह विशाल तनों और छाया वाला पेड़ नहीं बचा है, जो जेठ की तपती दोपाहरी में मेरे दोस्तों का साया था. जिन पेड़ों की छाया में उस राजमार्ग के किनारे हम रोज १६ किलोमीटर साईकिल चलाकर पढ़ने जाते थे. अब मैं खुद उन सड़कों को नहीं पहचान पा रहा हूँ, जहाँ मैं पला-बड़ा हूँ. मेरे पिता जी इस बार लेकर मुझे वह राजमार्ग के विस्तार को दिखाने ले गये, जहाँ किसानों के उगे गेहूं और चने-सरसों के खेतों में बड़ी-बड़ी सड़क निर्माण की मशीनें और विशालकाय जे.बी.सी. सीना ताने खड़ी थीं और उन डरावनी विशालकाय मशीनों को देखकर एक भय का वातावरण निर्मित हो रहा था. मैंने पिता जी से मुझे यहाँ से घर चलना है, मैं यह सब नहीं देखा पाउँगा. मैं बहुत दुखी था कि जिनकी जमीनों को ले लिया गया है क्या उनके वाहन इस राजमार्ग पर कभी दौड़ पायेंगे.? उनके पास मुआवजे का पैसा कितने दिन रुकेगा.? उनके परिवारों का क्या होगा. यह राजमार्ग अगर थोड़ा कम विस्तार पाता तो क्या समस्या का हल नहीं निकलता.? क्योंकि इस राजमार्ग के किनारे इतने बड़े थे कि उनको ही अगर हिसाब से विस्तार दिया जाता तो पेड़ों और उपजाऊ जमीन की यह बर्बाद रोकी जा सकती थी.
            एक तो हमारे देश में खेती की उपजाऊ जमीन की बहुत कमी है. ऊपर से गंगा-यमुना के विशाल मैदान की उपजाऊ अमूल्य जमीन को क्रांकीट के जंगलों और सड़कों में बदला जा रहा है. वैसे भी युमना के किनारे बसा नोयडा तो क्रांकीट का वेतरतीब जंगल है, जो दिल्ली के पैसे वाले और देश व उत्तर प्रदेश के भ्रष्ट नौकरशाहों का खूब पैसा लगा है, यहाँ के भू-खण्डों-फ्लैटों-फार्म हाउसों में. ऐसा ही सब इस दोआबा में चलने वाला है. सत्ता के दलालों, शहर के गुंडों-बिल्डरों और माफियाओं ने क्या हाल बना दिया है, इस उपजाऊ जमीन का. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है मन करता है कि यह सारे निर्माण तोड़ डालूं और जो लोग जिम्मेदार हैं उनको सार्वजनिक लैम्प पोस्ट पर लटका कर फांसी दे दूँ. क्या करेंगे यह लोग विकास करके............!!! 

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