Sunday, July 12, 2015

एक दिन असहाय पशु-पक्षियों के नाम... One day in Peoples for Animals, Wardha

मैं कल 11 जुलाई, 2015 को अपने पशु प्रेमी व मानव विज्ञानी मित्र डॉ. वीरेन्द्र प्रताप यादव जी के साथ वर्धा में अपने विश्वविद्यालय के निकट पिपरी गाँव में स्थित Peoples for Animals, Wardha. जिसे करुणाश्रम भी कहते हैं. उसमें एक दिन उन बेजुबान असहाय, अपंग एवं निरीह जीव-जंतुओं के साथ बिताया. वैसे तो यह संस्था मेरे मित्र श्री आशीष गोस्वामी जी की है, वे मेनका गाँधी के संगठन Peoples for Animals से जुड़े हैं और उन्होंने अपना पूरा जीवन इन्हीं असहाय प्राणियों के नाम कर दिया है, वे मांस-मछली तो दूर की बात है अंडा भी नहीं खाते हैं, कहते हैं कि उसमें भी जीवन होता है. श्री आशीष गोस्वामी जी से परिचय एवं मित्रता करवाने का पूरा श्रेय हमारे परम प्रिय भगत सिंह रूपी मित्र डॉ. मोतीकपूर मानिकराव प्रफुल्ल मून जी को जाता है.
 

 


जब मैं और वीरेन्द्र भाई अपनी मोटरसाइकिल से वहाँ पहुंचे तो करुणाश्रम के गेट पर हमारा स्वागत वहाँ के प्रवासी असहाय कुत्तों ने किया. वे सब हम दोनों लोगों को देखने और मिलने ऐसे चले आ रहे थे, जैसे उनसे मिलने कोई उनका अपना आया हो. हम दोनों लोग तो उनके लिए अजनबी ही थे, क्योंकि वे पालतू कुत्ते थे जो उनके पालकों ने उन वेजुबानों को कई कारणों से घर से निकाल दिया था. उनकी पथराई और इंतजार करती बोझिल आँखों का हाल देखना मुश्किल हो रहा था. उनमें कोई बीमार था, किसी की कमर तोड़ दी गयी थी (यह घटना हमारे विश्वविद्यालय परिसर में एक कुत्ते के साथ हुयी थी, जिसको मैं और वीरेन्द्र भाई यहाँ लेकर इससे पहले आये थे), तो कोई सड़क से उठाकर लाया गया था. वे सब अपने आश्रय से निकाल दिए गये प्राणी थे, लेकिन उनको आश्रय तो मिला पर उनका मन तो अपनों पालकों को खोजता रहता है, नित्य-दिन-प्रतिदिन.
 

 

 

 
गेट से आगे बढ़ते ही दाहिने हाथ के पिंजरे में एक लंगूर का बच्चा बहुत जोर-जोर से चीखता और तड़फता दीखा, पास जाकर देखा तो उसकी किसी शिकारी द्वारा लगाये फंदे से पीछे वाली एक टांग कट गयी थी. वह हमको देखकर अपने हाथ की नन्ही-नन्ही उंगलियाँ पिंजरे से निकालकर चीं-चीं करता अपनी पीड़ा दिखा रहा था और खाने के लिए भी कुछ देने का अनुनय कर रहा था.
 


उसके पिंजरे के बराबर में ही पेड़ों से तीन ऊँट बंधे थे, जो बीमार थे और एक के चेहरे पर तो पीटने के खूनी निशान उभरे हुये थे. इन ऊँटों को वर्धा जिला अदालत ने एक मुकद्दमें के पूरा होने तक यहाँ रहने का आदेश सुनाया है, क्योंकि यह एक सर्कस के ऊँट हैं. यहाँ पर इसी अदालत ने सर्कस के एक बड़े पिंजरे में कई आष्ट्रेलियन तोते, जो वीरेन्द्र भाई जैसा बोल रहे थे वैसी ही नकल उतार रहा था और घोड़े भी केस के सिलसिले में बंद किये हैं. यह सब प्राणी अपने मालिक से कब तक दूर रहेंगे, इनका फैसला क्या होगा.? यह ना आशीष जी को पता है और ना ही वर्धा जिला अदालत के पास इतना समय है कि इनका केस जल्दी एक-दो दिन में निबटाये.
 

 

 

 

उसके आगे जो सबसे मार्मिक दृश्य था वह यह कि एक पिंजरे में एक छोटा सा लंगूर का बच्चा बहुत ही शांत-उदास-गंभीरता से बिना कोई हलचल किये बैठा था और जाली से अपनी नन्ही आखों से हमको देखने की कोशिश कर रहा था. पास जाकर देखा तो मन काँप उठा कि आखिर मनुष्य कितना क्रूर हो सकता है.? उसको बिजली का करंट लगा था, जो किसी ने अपने खेत की बाड़ की रखवाली के लिए तार में बिजली प्रवाहित की थी, उस बेचारे का पूरा मुँह जल गया था, उसकी पूंछ, पैरों और हाथ में भी बिजली के झुलसने के निशान मौजूद थे, जिन पर यहाँ के कर्मचारियों द्वारा मरहमपट्टी की गयी थी. सबसे अधिक ह्रदय विदारक यही लंगूर का बच्चा लग रहा था. उसकी सारी चंचलता ना जाने कहाँ थी.? क्योंकि वह जिस पिंजरे में रखा गया था, उसमें दो विदेशी टर्की पक्षी और कई देशी मुर्गे-मुर्गी भी बंद थे. वह जिस पीड़ा से गुजर रहा था, वह हमें संकेत से आकर शांत हो अपने पिंजरे के पास की जाली के किनारे हमारे पास आ बैठता था.
 

 

 

 




इसके आगे वाले पिंजरे में बत्तख बंद थीं, उसके बाद नीलगाय और उसके छोटे बच्चे को शिकारी द्वारा मांस ना खाया जाए, से बचाकर लाया गया था और उनको आगे वाले पिंजरे में रखा गया था. उसके आगे वाले एक अँधेरे बंद पिंजरे में एक बहुत ही दुर्लभ प्रजाति का बड़ा सा उल्लू को सुरक्षित रखा गया था, यह हमारे देश की शिक्षा का दुर्भाग्य है कि अनपढ़-अन्धविश्वासी-दुष्ट लोगों के द्वारा उल्लू के सूखे मांस का प्रयोग यौनवर्धक दवा के रूप में और उसकी हड्डियाँ-पंजों-पंखों का प्रयोग तंत्र-मंत्र-इश्क-मुश्क-सौतन-रखैल-वशीकरण-गढ़ा धन बताने के लिया किया जाता है.
 






यह देखते शाम हो आयी थी और पशु-पक्षियों को शाम का खाना-चारा-पानी देने का समय हो गया था, वहाँ के एक काका जी यह काम बहुत ही कुशलता से कर रहे थे. यहाँ गायों को एक अलग शेड में रखा गया है, उनकी संख्या अधिक है. कुछ सीधे लेब्राडोर कुत्तों को घुमाने के लिए उनके ट्रेनर आ चुके थे और हमारे यहाँ से रुखसत होने का समय आ चुका था. शाम के समय यह पूरा करुणाश्रम परिसर पशु-पक्षियों की भांति-भांति की आवाजों-चीखों और उनके कलरव से गुंजायमान हो रहा था, बहुत दूर तक व देर तक यह आवाजें हमारा पीछा करती रहीं, शायद हमको रोकने लिए.?



वीरेन्द्र भाई के आग्रह पर हम लोग फिर इसकी ऊँची पहाड़ी पर चले गए शाम का ढलता सूरज व अपना विश्वविद्यालय दूर से देखने के लिए. जब लौटे तो इस संस्था के बारे में सोचते और विचार करते कि यहाँ दान या पैसा किसी नगद या रसीद के रूप में नहीं लिया जाता है, बल्कि यदि कोई दानादाता इन निरीह प्राणियों को कुछ देना चाहता है, खिलाना चाहता है, तो वह खुद खरीदकर लाये तब दान करे.....
हम दोनों लोगों को लगा कि शायद इसीलिये यह संस्था अब जीवित है और अपनी सहज गति से आगे बढ़ रही है. मैं श्री आशीष गोस्वामी जी के अलावा इसके स्वयं सेवकों श्री किरण मस्वादे, श्री गनेस मसराम व अन्य सभी के नि:स्वार्थ सेवाभाव को नमन करता हूँ. अपने विश्वविद्यालय के सभी छात्रों और शुभ चिंतक रूपी मित्रों से कहूंगा कि वे एक बार जरुर यहाँ जाएँ, शायद वहाँ जाकर उनके मन में करुणा और दयालुता का भाव पैदा हो जाये. यदि आपके मन में कुछ हलचल हो तो उचित है, ना हो तो भी ठीक है. मैं मानता हूँ कि यह मामला केवल असहाय पशुओं-पक्षियों का ही नहीं है, बल्कि यह हमारी सम्पूर्ण मानवीय संवेदनशीलता-दयालुता-करुणा और सभी के प्राणियों के प्रति मैत्रीपूर्ण भाव से भी जुड़ा है.
आपका
डॉ. सुरजीत कुमार सिंह.

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