Wednesday, November 30, 2011

डॉ. भदन्त आनन्द कौशल्यायन जी की १०६ वी जयंती


05 जनवरी, 2011 को डॉ. भदन्त आनन्द कौशल्यायन जी की 106 वी जयंती है. वे प्राचीन बुद्ध कालीन भारत में प्रचलित पालि भाषा के मूर्धन्य विद्वान थे, इसके साथ ही वे पूरे जीवन घूम घूमकर राष्ट्र भाषा हिंदी का भी प्रचार प्रसार करते रहे. वह 10 साल राष्ट्र भाषा प्रचार समित्ती, वर्धा के प्रधानमंत्री रहे.उनका जन्म ०५ जनवरी,१९०५ को अविभाजित पंजाब प्रान्त के मोहाली के निकट सोहना नामक गाव में एक खत्री परिवार में हुआ था. उनके पिता लाला रामशरण दास अम्बाला में अध्यापक थे. भदन्त जी के बचपन का नाम हरिनाम था. १९२० में भदन्त जी ने १०वी की परीक्षा पास की, १९२४ में १९ साल की आयु में भदन्त जी ने स्नातक की परीक्षा पास की. जब वे लाहौर में थे तब वे उर्दू में भी लिखते थे.

भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में भी भदन्त जी ने सक्रिय रूप से भाग लिया. महात्मा गाँधी, पुरुषोतम दास टंडन, पंडित जवाहरलाल नेहरु, बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर, महापंडित राहुल संकृत्यायन, भिक्षु जगदीश कश्यप, भिक्षु धर्मरक्षित आदि लोगो के साथ मिलकर वे भारत की आज़ादी की जंग में सक्रिय रहे. वे श्रीलंका में जाकर बौद्ध भिक्षु हुए. वे श्रीलंका की विद्यालंकर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अध्यक्ष भी रहे.

भदन्त जी ने जातक की अत्थाकथाओ का ६ खंडो में पालि भाषा से हिंदी में अनुवाद किया, धम्मपद का हिंदी अनुवाद के आलावा अनेक पालि भाषा की किताबो का हिंदी भाषा में अनुवाद किया. साथ ही अनेक मौलिक ग्रन्थ भी रचे जैसे - अगर बाबा न होते, जातक कहानिया,भिक्षु के पत्र, दर्शन- वेद से मार्क्स तक, राम की कहानी राम की जुबानी, मनुस्मृति क्यों जलाई, बौद्ध धर्म एक बुद्धिवादी अध्ययन, बौद्ध जीवन पद्धति,जो भुला न सका, ३१ दिन में पालि, पालि शव्द कोष,सारिपुत्र मौद्गाल्ययान् की साँची,अनागरिक धरमपाल आदि . 22 जून 1988 को भदन्त जी का नागपुर में महापरिनिर्वाण हो गया.

Thursday, November 24, 2011

2nd & 3rd Century A.D. Buddhist Stupas & Viharas

Morays & Sung Period 2nd & 3rd Century A.D. Buddhist Stupas & Viharas.

Barhat, District- Rewa.(M.P.)

This picture taken by Dr. Roopesh Kumar Singh, Asst. Prof. HINDI, MGIHU, WARDHA.





इस पत्थर् को उठाने की कोशिश करते रूपेश जी.

Morays & Sung Period 2nd & 3rd Century A.D. Buddhist Stupas & Viharas.

Barhat, District- Rewa.(M.P.)

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2nd & 3rd Century A.D. Buddhist Stupas & Viharas

Morays & Sung Period 2nd & 3rd Century A.D. Buddhist Stupas & Viharas.

Barhat, District- Rewa.(M.P.)

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Morays & Sung Period 2nd & 3rd Century A.D. Buddhist Stupas & Viharas.

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2nd & 3rd Century A.D. Buddhist Stupas & Viharas

Morays & Sung Period 2nd & 3rd Century A.D. Buddhist Stupas & Viharas.

Barhat, District- Rewa.(M.P.)

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Morays & Sung Period 2nd & 3rd Century A.D. Buddhist Stupas & Viharas.

Barhat, District- Rewa.(M.P.)

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2nd & 3rd Century A.D. Buddhist Stupas & Viharas

Morays & Sung Period 2nd & 3rd Century A.D. Buddhist Stupas & Viharas.

Barhat, District- Rewa.(M.P.)

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Morays & Sung Period 2nd & 3rd Century A.D. Buddhist Stupas & Viharas.

Barhat, District- Rewa.(M.P.)

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2nd & 3rd Century A.D. Buddhist Stupas & Viharas

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Barhat, District- Rewa.(M.P.)

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2nd & 3rd Century A.D. Buddhist Stupas & Viharas

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Morays & Sung Period 2nd & 3rd Century A.D. Buddhist Stupas & Viharas.

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Tuesday, November 22, 2011

दलित विरोध का प्रगतिशील अध्याय

दलित विरोध का प्रगतिशील अध्याय


मुद्राराक्षस, वरिष्ठ साहित्यकार

याद रखना होगा कि इस संगठन को अरसे तक अपनी मर्जी से चलाने वाले रामविलास शर्मा दलित विमर्श के कट्टर विरोधी थे

1936 में यानी आज से पचहत्तर साल पहले प्रेमचंद की अध्यक्षता में हुई थी पल्रेस की स्थापना। वह भारतीय साहित्यिक इतिहास का एक गौरवशाली अध्याय था। हालांकि प्रेमचंद उस वक्त हिंदी के शिखर रचनाकार माने जा चुके थे लेकिन उनके इस सम्मेलन के अध्यक्ष बनाए जाने की बड़ी वजह थी उनका उर्दू भाषा में भी सर्वमान्य कथाकार होना। उन दिनों और उसके बाद भी यह संगठन उम्दा और कद्दावर रचनाकारों का बड़ा मंच बना रहा था। मंटो, कृश्न चंदर, राजेंद्र सिंह बेदी, मजाज और फैज अहमद फैज जैसे कालजयी लेखकों ने इस संगठन को बुलंदी दी थी। लेकिन बाद में डॉ. रामविलास शर्मा ने इसका ऐसा कचरा किया कि उनके दौर में इसे विघटित ही करना पड़ा। याद रखना होगा कि इस संगठन को अरसे तक अपनी मर्जी से चलाने वाले रामविलास शर्मा दलित विमर्श के कट्टर विरोधी थे। वैसे तो जिस कम्युनिस्ट आंदोलन से यह प्रगतिशील लेखक संघ जुड़ा रहा, वह पार्टी खुद भी दलित विमर्श को एक निर्थक वैचारिकता मानता रहा है और उसके नेताओं ने अकसर दलित प्रश्न को साम्राज्यवादी साजिश ही घोषित किया है। लेकिन पिछले कोई तीन दशकों में उत्तर भारत में दलित चेतना के उभार के बाद पार्टी अपने प्रस्तावों में एक पैरा बेमन से ही सही इस मसले को जोड़ती रही है। यह देखना दिलचस्प है कि प्रगतिशील लेखक संघ ने दलित प्रश्न को अछूत ही बनाए रखा। जिस तरह कम्युनिस्ट आंदोलन न कभी डॉ. अंबेडकर या फुले का नाम लेना मुनासिब नहीं समझा, उसी तरह प्रगतिशील लेखकों की दुनिया में इनका कोई निशान नहीं मिलेगा। बल्कि अकसर इन बहुत बड़े विचारकों को साम्राज्यवादी और अंग्रेजपरस्त भी कहा गया बिना इनके विचारों की अर्थवत्ता पर कोई ध्यान दिए। यह सचमुच हैरानी की बात है कि रामविलास शर्मा से लेकर वर्तमान चर्चित लेखकों ने कभी इस बात की जरूरत नहीं समझी कि वे डा. अंबेडकर या फुले को समझें, पहचानें। देश के अनेक दलित विचारकों ने कम्युनिस्ट आंदोलन को ब्राह्मणों की विचारधारा से जोड़ा है। यह बात सच भी रही है कि अजय घोष, नंबूदरिपाद, पीसी जोशी से लेकर डांगे तक सारे बड़े और प्रभावशाली नेता ब्राह्मण ही रहे हैं और शायद यही वजह है कि किसान और मजदूर की बातें जोर-शोर से करने के बावजूद उन्होंने दलित प्रश्न को ठीक उसी नजर से देखा जिस नजर से सवर्ण समाज दलितों और पिछड़ों को देखता रहा है। उनकी सवर्ण मानसिकता बराबर उन पर हावी रही है। अभी हाल में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ ने अपनी हीरक जयंती के मौके पर जो बड़ा सम्मेलन किया उसकी अध्यक्षता इस संगठन के वर्तमान अध्यक्ष ने की। वे आलोचक के रूप में खासे विख्यात हैं और इस दृष्टि से अपने भाषण में उन्होंने दलित विमर्श पर जो विचार व्यक्त किए वे इसी सवर्ण-मानसिकता को जाहिर करते हैं जो देश में दलित समाज सदियों से झेलता आया है। संस्कृत में एक धर्मसूत्र सिर्फ दलित जातियों से ही संबंधित है- कमलाकर भट्ट कृत शूद्र कमलाकर। दलित विरोधी अन्य विचारों के अलावा उसमें यह बात बहुत विस्तार से लिखी गई है कि किसी विद्वान व्यक्ति को शूद्र के बारे में सोचना भी वर्जित और गर्हित है। प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष अपने परिवारजनों और अपनी घोषणाओं के अनुसार कुलीन क्षत्रिय हैं। क्षत्रिय कुलीनता की अकसर चर्चा करने वाले उक्त आलोचक ने इस सम्मेलन में दलित विमर्श को सिरे से खारिज कर दिया। यह देखकर किसी को हैरानी हो सकती है कि वे ही नहीं इस प्रगतिशील प्रजाति के अन्य लेखक भी इसी कुलीनताग्रंथि के शिकार हैं। विनाथ त्रिपाठी को आप क्या कहेंगे? गनीमत है कि प्रगतिशीलों के बीच एक अपवाद मौजूद हैं वीरेंद्र यादव लेकिन अगर वे भी दलित प्रश्न के पक्ष में न लिखते तो यह संगठन शायद ज्यादा सुखी होता क्योंकि वीरेंद्र के विचार प्रगतिशील परंपरा से बाहर पड़ते हैं।

Dr. Surjeet Kumar Singh






Dr. Surjeet Kumar Singh Visit Ahmandnagar Fort

Dr. Surjeet Kumar Singh, Dr. Sunil Kumar Suman With Prof. L. Karunyakara Sir Visit : Ralegan Siddhi Village of Anna Hazare

Monday, November 21, 2011

क्या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दूध का धुला है?

क्या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दूध का धुला है?

जस्टिस मार्कंडेय काटजू

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने स्वयं को प्रेस काउंसिल के तहत लाए जाने पर कड.ी आपत्ति जताई है. वह स्वनियमन का दावा करती है. यहां यह जान लेना जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के न्यायधीशों को भी यह अधिकार नहीं है. किसी गलती के लिए उन्हें संसद के महाभियोग का सामना करना पड. सकता है. वकील बार काउंसिल के अंतर्गत आते हैं, जो किसी भी पेशागत अनियमितता के लिए उनका लाइसेंस निरस्त कर सकती है. डॉक्टर मेडिकल काउंसिल के अंतर्गत आते हैं. लेखाकारों की भी यही स्थिति है. फिर भला इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को ही किसी नियामक प्राधिकरण के अंतर्गत आने में शर्म क्यों है?
अपने विभिन्न टीवी साक्षात्कारों के दौरान मैं मीडिया के बारे में अपनी राय का इजहार करता रहा हूं. कुछ अखबारों में प्रकाशित अपने लेखों में भी मैं अपने विचार बता चुका हूं. हालांकि बहुत से लोग, जिनमें मीडिया के लोग भी शामिल हैं, मेरे द्वारा उठाए गए कुछ मुद्दों पर स्पष्टीकरण या उनकी व्याख्या चाहते हैं. टीवी चैनलों समेत मीडिया से जुडे. कई लोग इस संबंध में मेरा साक्षात्कार चाहते थे, पर मैंने कहा कि मैं कुछ समय तक इंटरव्यू नहीं देना चाहता, क्योंकि कोई अगर लगातार साक्षात्कार देता रहे तो उसका प्रभाव अच्छा नहीं पड.ता. हालांकि मेरे द्वारा उठाए गए कुछ मुद्दों पर मचे बवाल के चलते उनपर स्पष्टीकरण देना जरूरी हो गया है.
संक्रमण काल और मीडिया
आज भारत, हमारे इतिहास के संक्रमण काल से गुजर रहा है. हम सामंती प्रथा वाले कृषक समाज से आधुनिक औद्योगिक समाज में बदल रहे हैं. यह इतिहास का बेहद पीड.ादायक और कठिन समय है. पुराने सामंतवादी समाज की जडे.ं उखड. चुकी हैं, जबकि एक नया उद्योगप्रधान समाज पूरी तरह स्थापित नहीं हो पाया है. पुराने मूल्य खत्म होते जा रहे हैं पर नए आधुनिक मूल्यों को अभी भी पूरी तरह स्वीकृति नहीं मिली है. हर तरफ खलबली है. जो कल तक अच्छा माना जाता था, आज वह बुरा है, कल तक जो बुरा था, वह आज अच्छा है. जैसा कि शेक्सपियर ने मैक्बेथ में कहा है, 'अच्छा ही बुरा है, बुरा ही अच्छा है.' अगर कोई 16वीं से 19वीं शताब्दी के बीच के यूरोपियन इतिहास का अध्ययन करे, जब सामंती व्यवस्था आधुनिक समाज में बदल रही थी, तो उसे पता चलेगा कि संक्रमण काल में वहां कितनी क्रांतिकारी घटनाएं घटित हुईं, मैं सिर्फ यह बताना चाहता हूं कि जिस आग से कभी यूरोप गुजरा था, भारत भी आज उसी आग से गुजर रहा है. हम अपने देश के इतिहास के सबसे पीड.ादायक काल से गुजर रहे हैं. जिसे खत्म होने में मेरे हिसाब से अभी और 15-20 साल लग जाएगा. मेरी दुआ है कि यह परिवर्तन बिना किसी तकलीफ के जल्द से जल्द हो जाए, पर दुर्भाग्य से इतिहास इस तरह काम नहीं करता.
मीडिया की भूमिका
इस संक्रमणकाल में नए विचारों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है और इस लिहाज से मीडिया की भी. विशिष्ट ऐतिहासिक संधि में विचार भौतिक ताकत बन जाते हैं. उदाहरण के तौर पर स्वतंत्रता, समानता, और भाईचारे धार्मिक स्वतंत्रता (धर्मनिरपेक्षता) के विचार यूरोप में परिवर्तन और खासतौर पर अमेरिकी तथा फ्रांसीसी क्रांतियों के दौरान भौतिक ताकत बनकर उभरे. यूरोप में संक्रमणकाल के दौरान मीडिया (जो तब सिर्फ पिंट्र मीडिया ही था) ने सामंतवादी यूरोप को आधुनिक यूरोप में बदलने में बहुत अहम और ऐतिहासिक योगदान दिया. इतिहास के पन्ने पलटकर देखिए. पिंट्र मीडिया सामंती उत्पीड.न के विरुद्ध एक हथियार बनकर उभरा है. उस वक्त सभी तेज हथियार सामंतों या निरंकुश शासकों के ही हाथ में थे. लिहाजा लोगों को अपने लिए ऐसे हथियार तैयार करने थे, जो उनके हितों की रक्षा कर सकें. इसी वजह से अखबारों को चौथा स्तंभ कहा गया. मूल रूप से शासन का संरक्षण करने के लिए स्थापित यह सामंती हथियार भी अब इस उद्देश्य के ठीक विपरीत यूरोप और अमेरिका में भविष्य की आवाज का प्रतिनिधित्व करता है. दिदेरो ने लिखा, 'मनुष्य तब स्वतंत्र होगा जब अंतिम राजा मारे जाएंगे.' वाल्टेयर ने अपने व्यंग्यपूर्ण उपन्यासों 'कैंडिड' और 'जॉडिग' में धार्मिक कट्टरपंथ, अंधविश्‍वास और कुतकरें की खिंचाई की. रूसो ने 'सोशल कांट्रैक्ट' में सामंती उत्पीड.न पर हमला बोला और साथ ही सामान्य इच्छा (जो व्यापक तौर पर आम स्वायत्ता के रूप में जानी जाती है) के सिद्धांत का भी प्रतिपादन किया. थॉमस पेन ने मनुष्य के अधिकार के बारे में लिखा जबकि ज्यॅूनियस ने निरंकुश जॉर्ज तृतीय के मंत्रियों में फैले भ्रष्टाचार पर प्रहार किया. डीकेन्स ने 19वीं शताब्दी के इंग्लैंड की सामाजिक दशाओं की आलोचना की. ये सभी और तमाम अन्य भी आधुनिक यूरोप के निर्माता माने जाते हैं.
इतिहास में उदाहरण
मेरा मानना है कि भारतीय मीडिया को भी वैसी ही प्रगतिशील भूमिका निभानी चाहिए, जैसी कभी यूरोपीय मीडिया ने निभाई थी. ऐसा वह पिछड.ी हुई और सामंती सोच, जातिवाद, सांप्रदायिकता, अंधविश्‍वासों, महिला उत्पीड.न जैसे मामलों के खिलाफ आवाज उठाकर तथा समाज को तार्किक, वैज्ञानिक विचारों के साथ ही साथ सहिष्णुता धर्मनिरपेक्षता का संदेश देकर कर सकता है. एक जमाने में मीडिया के एक हिस्से ने हमारे देश में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. राजा राम मोहन राय ने पूरे साहस के साथ अपने समाचार पत्रों- 'मिरातुल अखबार' तथा 'संवाद कौमुदी' में सती प्रथा, पर्दा और बाल विवाह जैसे पिछड.ी हुई परंपराअत्र् इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने स्वयं को प्रेस काउंसिल के तहत लाए जाने पर कड.ी आपत्ति जताई है. वह स्वनियमन का दावा करती है. यहां यह जान लेना जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के न्यायधीशों को भी यह अधिकार नहीं है. किसी गलती के लिए उन्हें संसद के महाभियोग का सामना करना पड. सकता है. वकील बार काउंसिल के अंतर्गत आते हैं, जो किसी भी पेशागत अनियमितता के लिए उनका लाइसेंस निरस्त कर सकती है. डॉक्टर मेडिकल काउंसिल के अंतर्गत आते हैं. लेखाकारों की भी यही स्थिति है. फिर भला इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को ही किसी नियामक प्राधिकरण के अंतर्गत आने में शर्म क्यों है?

MGIHU to set up Buddhist Literature study Centre in Wardha

ONE INDIA NEWS India's 1 Language Portal

Bottom of FoMGIHU to set up Buddhist Literature study Centre in Wardha

Thursday, February 21, 2008, 16:14

Nagpur, Feb 21 (UNI) Mahatma Gandhi International Hindi University (MGIHU) will shortly open a Buddhist Literature Study Centre at its campus in Wardha in Vidarbha region of Maharashtra.
The university has signed a Memorandum of Understanding (MoU) with Kelania University of Sri Lanka for the same, MGIHU Vice-Chancellor Prof G Gopinathan told UNI. The centre, to be named after Buddhist monk late Bhadant Anand Kausalyayan, aims to translate quality literature from Singhalese into Hindi and vice versa, he said.

The Indian Diaspora Study Centre of the university was formally inaugurated at the campus yesterday, Prof Gopinathan said. The centre would collect and conserve manuscripts and other social and cultural resources related to the Indian Diaspora and its history. The university proposed to establish several other units as a part of its expansion plans, the Vice-Chancellor said. These includes the World Hindi Museum and Archives for preserving rare manuscripts, translated and research works, creative writing, magazines and research journals, an acting, music, dance and drama centre, a publication centre and an international friendship centre, he said. He further said the work of the Mahatma Gandhi-Fuji Guruji International Peace Studies Centre being established in cooperation with Japan, and that of Dr Babasaheb Ambedkar Dalit and Tribal Study Centre, had already begun with the appointment of the directors.

The university recently launched five courses in distant education mode through its Centre for Distance Education, which was inaugurated last year by the then President A P J Abdul Kalam. The programmes were Post-Graduate Diploma courses in Translation and in Journalism and Mass Communication, Diploma in Women's Empowerment and Development, Bachelor of Arts in Hindi, and Diploma in Creative Writing in Hindi, said the Vice Chancellor.

Dr Gopinathan said MGIHU's plans include the establishment of regional and study centres in addition to those already proposed in Delhi, Lucknow, Kolkata, Ahmedabad and Chennai. Besides, the university also plans for a regional and study centres abroad, a world Hindi portal, the compilation of a Hindi encyclopaedia, and the establishment of a digital library.

MGIHU's centres are proposed to be opened in countries with sizeable population of Indian origin, like Mauritius, Fiji, Guyana, Surinam, and Trinidad and Tobago and also in countries with cultures similar to that of India, like Nepal, Bangladesh, Sri Lanka, Indonesia, Malaysia, Singapore and Thailand. Centres would also be opened in countries that have interest in Hindi, like China, Japan, Uzbekistan, Korea, Iraq, Iran, Turkey and Saudi Arab in Asia, England, France, Hungary, Spain, Germany, Russia, Bulgaria, Poland, Finland and Holland in Europe, and Canada, Columbia, Brazil, Mexico, Peru and Cuba in the American continent, informed Prof Gopinathan.

A volume of papers and reports presented at the eighth World Hindi Conference held in New York in July last, brought out by MGIHU, was released at the international seminar on 'Gandhi, Hindi and World Literature' hosted by the university in Nagpur and Wardha between February 14 and 16 last, he added.
MGIHU is a Central University established by an act of Parliament in 1997 to promote Hindi language.
article published on February 21, 2008

Saturday, November 19, 2011

International community rises against AFSPA, supports Sharmila

MANIPUR MAIL

First English Daily of Manipur

International community rises against AFSPA, supports Sharmila

Mail News Service

Tuesday, November 08, 2011
Imphal, Nov 5 : Sit in protest were organized by Sharmila Kanba Lup as Irom Sharmila completed eleven years of fast demanding repeal of the draconian Armed Forces Special Powers Act 1958 (AFSPA).
Protests were held in North America, European countries and different states of the country.
Sharmila was nominated to the 2005 Nobel Peace Prize, awarded the 2007 Gwangju Prize for Human Rights, shared the award with Lenin Raghuvanshi of People’s Vigilance Committee on Human Rights, Rabindranath Tagore Peace Prize 2010 Sarva Gunah Sampannah ‘ Award for Peace and Harmony” , Mayillama Award (Kerala).
In Turkey 8–11 December 2010 The Which Human Rights Festival organized by the Turkish Human Rights Group the Documentarist was dedicated to Irom Sharmila .
Today 10 a.m to 6 p.m a protest march has set out from Mahatma Gandhi International University to District Magistrate, Wardha, Maharastra in support of Irom Sharmila by the Teaching Faculties, Staffs, Students including North-East and Civil Society of Wardha and Nagpur. Among the civil society Yuva Sangathan, Kisan Sangathan, Magan Sagrahalay and thousands of people etc was present in the rally. A Memorandum in the name of President Pratibha Patil to remove AFSPA from North- East has been submitted to the District Magistrate, Wardha As a part of the protest On 2nd November also a discussion programe on AFSPA was organized by Debating Society, Mahatma Gandhi International Hindi University, Wardha. An effective program was also held with a street play and Documentary film show on Sharmila giving speech by of Vice Chancellor Vibhuti Narayan Rai, Prf. Ramsharan Joshi, Mass communication and Media Department, Dr. Avantika Shukla asst. prof, Women Sudies, Dr. Sharad Jaiswal, Dr. Anwar Ahmmed Sidikki, Assistant Prof .Tranaslation and Interpretation , Thokchom kamala Devi Research student , Informatics and Language Engineering and some other Research sudents.
The programme was conducted by Dr, Surj
eet Kumar Singh , Assistant Prof. Buddhist Sudies. Dr. Priti Sagar, Reader, Comparative Literature gave vote of Thanks .Prof K.K Singh of Comparative Literature, and other teaching , non teaching staffs and students were present in that programme.On the presidential sppech V.C. Vibhuti Narayan Rai gave deatails about the internal conflicts in Manipur wishing to reduce it. He further said to the North easterns to behave as to get the support from other states. He gave a opinion to remove AFSPA from Manipur and to support Irom Chanu Sharmila.

Saturday, November 12, 2011

सीमित सरोकार वाला लेखक संघ


विवेक कुमार

समाजशास्त्र विभाग, जेएनयू

क्या पल्रेस लेखकों ने कभी कोई कहानी, कविता, नाटक चमरोटी, चेरी या अन्य किसी दलित बस्ती को केंद्र में रखकर लिखी है । लगता तो नहीं है। रचना की भौतिक स्थिति एवं उसमें रचनाकार का जीवन जीना रचना की गुणवत्ता पर असर डालता है। परंतु यह घटित होना अभी बाकी है। अगर ऐसा होता तो पल्रेस इसका ढिंढोरा अवश्य पीटता

प्रलेस की 75 वीं वषर्गांठ अपने आप में भारतीय साहित्य विशेषकर हिन्दी पट्टी के साहित्य के लिए एक टिप्पणी है। यह इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि भारतीय साहित्य कहीं न कहीं रूढ़िवादी या यथास्थितिवादी मूल्यों, मान्यताओं आदि में अवश्य फंसा रहा होगा वरना एक समूह क्यों प्रगतिशीलता का दावा करता। वह भी नौ सौ साल बाद अगर हम हिन्दी साहित्य के आदिकाल को हिंदी साहित्य का आरंभ माने। पल्रेस की निरंतरता यह भी संदेश देती है कि अब भी संघर्ष जारी है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि भारतीय साहित्य में प्रगतिशील एवं रूढ़िवादी लेखन की दो समानान्तर शाखाएं हैं। ऐसा नहीं है कि एक के आने से दूसरे का अंत हो गया। दुख का विषय यह है कि 75 वर्ष के पश्चात जब हम इस आंदोलन का तटस्थ होकर आकलन करते हैं तो यह क्षीण होता दिखाई दे रहा है। इसका प्रमाण हाल ही में लखनऊ में पल्रेस की हीरक जयंती सम्मेलन में मिला। इस सम्मेलन में पल्रेस के बड़े कद वाले लेखक-आलोचक भारतीय संविधान में प्रदत्त आरक्षण व्यवस्था पर ही प्रश्न उठाने लगे। कुछ साहित्यकारों ने इसे जातिवादी टिप्पणी कहा है। ऐसा नहीं है कि इस आलोचक ने ऐसा पहली बार किया है। दूसरी परम्परा की खोज में अपने गुरु जी की व्यावसायिक अस्मिता पर उनकी वर्णीय अस्मिता ‘पंडित जी’ एवं ‘द्विवेदी जी’ का जामा पहना कर पहली परम्परा को और भी मजबूत किया। अत: हमें यह पड़ताल करनी होगी कि पल्रेस की आड़ में कितने लेखकों ने प्रगतिवादी लेखन को कितना नुकसान पहुंचाया होगा। उन्होंने रूढ़ियों तथा यथास्थितिवाद के कहीं और मजबूत तो नहीं किया? दलित साहित्य ज्यादा क्रांतिकारी पल्रेस के लेखकों ने अपनी वर्गीय विचारधारा के आधार पर भारतीय या विशेषकर हिन्दू मूल्यों को चुनौती अवश्य दी होगी। परंतु आज जब हम दलित साहित्य का आकलन करते हैं तो उनकी रचनाएं पल्रेस लेखकों की रचनाओं से ज्यादा क्रांतिकारी दिखाई देती है। भारतीय समाज की संरचनाओं यथा-भारतीय गांव, जाति व्यवस्था, परिवार आदि का जितना यथार्थ चितण्रदलित साहित्य में पढ़ने को मिलता है, उसकी प्रगतिशील साहित्य में कमी अखरती है। दलित आत्मकथाओं ने जिस प्रकार भारतीय गांवों में दलितों की जिंदगी का चितण्रकिया है, वह पल्रेस लेखकों से कोसो आगे है। दलित समाज चमरौदी, महारवाड़ा, चेरी मादिगावाडा आदि से गांव किस प्रकार देखता है, वह प्रतिशील लेखक लिख कर भी नहीं लिख सकता था क्योंकि उसे यह सब लिखने के लिए उसे वहां पर ही पैदा होना होता या फिर वहीं पर पला और बड़ा होना होता। परंतु वर्णीय परिस्थितिक उसे यह स्वतंत्रता भी नहीं देती।

इसी कड़ी में दलित साहित्यकारों ने हिन्दू समाज में जिस तरह ‘गुरु’ की छवि एवं महिमा का विखंडन किया है, वह सराहनीय है। यह पक्ष पल्रेस में नदारद है। अपवाद हो सकते हैं। कहां गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेर..बताया जा रहा है वहीं दलित साहित्यकार अपनी स्वानुभूति के आधार पर क्रूर, कपटी, निर्दयी, जातिवादी घोषित कर रहे हैं (ओमप्रकाश वाल्मीकि-जूठन, श्योराजसिंह बेचैन-मेरा बचपन मेरे कंधों पर, तुलसीराम-मुर्दहिया आदि)। आत्मकथाएं ही नहीं अनगिनत कविताएं, नाटक, कहानियों में उपरोक्त चितण्रमिलते हैं, जिन पर शोध होना अभी बाकी है। स्वानुभूति की प्रामाणिकता का संज्ञान नहीं क्या पल्रेस लेखकों ने कभी कोई कहानी, कविता, नाटक चमरोटी, चेरी या अन्य किसी दलित बस्ती को केंद्र में रखकर लिखी है। लगता तो नहीं है। रचना की भौतिक स्थिति एवं उसमें रचनाकार का जीवन जीना रचना की गुणवत्ता पर असर डालता है। परंतु यह घटित होना अभी बाकी है। अगर ऐसा होता तो पल्रेस इसका ढिंढोरा अवश्य पीटता। जैसे कि जैसे ही दलित विमर्श का संदर्भ आता है, पल्रेस के सदस्य लेखक प्रेमचंद का डंडा निकाल कर दलित साहित्य को खारिज करने का विफल प्रयास करते हैं। दलित साहित्य की प्रामाणिकता एवं उसके सौन्दर्यशास्त्र पर प्रश्न उठाते हैं पर अपनी स्वानुभूति की प्रामणिकता का संज्ञान भी नहीं लेते। प्रगतिशील लेखकों ने अपनी वर्गीय अवधारणा के अंतर्गत कहीं न कहीं भारतीय सामाजिक संरचना , व्यक्तियों की सामाजिक भूमिका जो धर्मग्रंथों द्वारा स्थापित की गई एवं उनके द्वारा प्रस्तुत यथार्थ चितण्रतो दूर वंचित वर्ग के नायक-नायिकाओं को भी स्थापित नहीं किया। यहां फिर अपवाद हो सकते हैं। प्रगतिशीलता का दम भरने वाले लेखकों ने अम्बेडकर, फुले, नारायण गुरु, पेरियार, अथन्नकल्ली, जोगेन्द्रनाथ मण्डल, बिरसा मुंडा, सावित्री बाई फुले आदि दलितप्िाछड़े समाज के सुधारकों का कभी संज्ञान ही नहीं लिया। दलित साहित्य, धार्मिक एवं अब राजनीतिक आंदोलनों के कारण कुछ पल्रेस लेखकों एवं आलोचकों ने बाबा साहेब का संज्ञान तो लिया परंतु उनके व्यक्तित्व और अवदानों का आकलन बड़े ही संकुचित तरीके से किया। उनको दलित नेता तक सीमित कर दिया। यह रही उनकी प्रगतिशीलता। आखिर यह क्यों हुआ? देना होगा नई संकल्पनाओं को जन्म इसका उत्तर साफ है। सामाजिक संरचना में रचनाकार के आवंटित भूमिका एवं परिस्थिति उनकी रचनाओं को प्रभावित करती है। सामाजिक असमानता एवं जाति-श्रेणीबद्ध समाज में यह और भी सटीक बैठता है। ऐसी संरचना के कारण भिन्न-भिन्न सामाजिक श्रेणियों में जन्मे लोग सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, धार्मिक आदि संस्थाओं का अलग-अलग अनुभव रखते हैं। कुछ सामाजिक समूह इन संस्थाओं से अपने आपको वंचित पाते हैं तथा कुछ इसका पूर्ण लाभ उठाते हैं। सामाजिक संरचना में वंचना तथा उससे लाभ की स्थिति सामाजिक समूहों/व्यक्तियों की चेतना का सर्जन करती है। इसी सृजित चेतना का सहारा लेकर रचनाकार अपनी रचना को आकार देता है। एक ओर वर्णीय सामाजिक चेतना की स्थिति का लाभ दूसरी ओर आयातित मार्क्‍सवादी वर्गीय अवधारणा दोनों ने मिलकर पल्रेस के लेखकों की सोच को ही दूसरी दिशा दे दी। भारत में लोग सीधे वगरे में नहीं जातियों में पैदा होते हैं और जातियां वगरे की निर्मिति में अपना योगदान देती है। परंतु पल्रेस ने अभी तक कोई सिद्धांत या यंत्र नहीं बनाया जो यह माप सके कि जाति वर्ग बनाने में कितना प्रतिशत योगदान करती है। अत: पल्रेस आर्थिक वंचना सवरेपरि होती है, को ही अंतिम मान बैठा परंतु भारत में वंचना को अगर समझना है तो व्यक्ति या सामाजिक समूह की सामाजिक संरचना में परिस्थिति, उसकी/उनकी वंचना की ऐतिहासिकता, वंचना के बहुआयामी पक्ष, उनकी वंचना के लिए दोषी समूह तथा धार्मिक आधार आदि सभी को सम्मिलित करना होगा ताकि एक नवीन संकल्पना जन्म ले सके

क्‍यों जन-विरोधी है हमारा मीडिया ?

क्‍यों जन-विरोधी है हमारा मीडिया ?

जस्टिस मार्कंडेय काटजू

भारत में मीडिया जो भूमिकाएँ निभा रहा है उसे समझने के लिए सबसे पहले हमें ऐतिहासिक संदर्भों को समझना होगा। वर्तमान भारत अपने इतिहास में एक संक्रमण के दौर से गुज़र रहा है: एक सामंती खेतिहर समाज से आधुनिक औद्योगिक समाज की ओर संक्रमण। यह एक बहुत पीड़ादायक और व्यथित कर देने वाला दौर है। पुराने सामंती समाज की चूलें हिल रही हैं और कुछ तब्दीलियां हो रही हैं; लेकिन नया, आधुनिक, औद्योगिक समाज अभी तक संपूर्ण ढंग से स्थापित नहीं हुआ है। पुराने मूल्य की किरचें बिखर रही हैं, सारी चीज़ें उबाल पर हैं। शेक्सपियर के मैकबेथ को याद करें; “रौशन चीज़ें धूल धूसरित है और धूल धूसरित रौशन है” — जिन्हें पहले अच्छा माना जाता था, मिसाल के लिए जाति व्यवस्था, वह आज बुरी है (कम से कम समाज के जागरूक तबक़े में) और जिन्हें पहले बुरा माना जाता था, जैसे प्रेम के ज़रिए/लिए शादी, वे आज स्वीकार्य हैं (कम से कम आधुनिक मानस में)।

सभी देशप्रेमियों का, मीडिया सहित, यह फ़र्ज़ है कि वे इस संक्रमण से कम से कम पीड़ा और तत्काल उबारने में हमारे समाज की मदद करें। इस संक्रमण काल में मीडिया को एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी होती है क्योंकि इसका ताल्लुक विचारों से होता है, सिर्फ़ वस्तुओं से नहीं। अतः अपने मूल स्वभाव में मीडिया किसी अन्य साधारण व्यवसाय की तरह नहीं हो सकता। ऐतिहासिक तौर पर, प्रिंट मीडिया का उद्भव यूरोप में सामंती शोषण के ख़िलाफ़ जनता के एक सक्रिय हस्तक्षेप के बतौर हुआ। उस वक़्त सत्ता के सभी स्थापित उपकरण दमनकारी सामंती अधिकारियों के हाथों में थे। अतः लोगों को एक नए माध्यम की ज़रूरत थी जो उनका प्रतिनिधित्व कर सके। इसीलिए प्रिंट मीडिया को चौथे स्तंभकी तरह जाना जाने लगा। यूरोप और अमेरिका में यह भविष्य की आवाज़ का प्रतिनिधित्व करता था जो स्थापित सामंती अंगों-अवशेषों, जो कि यथास्थिति को बनाए रखना चाहते थे, के विपरीत था। मीडिया ने इसीलिए सामंती यूरोप को को आधुनिक यूरोप में परिवर्तित करने में एक अहम भूमिका अदा की है।

मेरे ख़याल से भारत की मीडिया को एक वैसी ही प्रगतिशील भूमिका का निर्वहन करना चाहिए जैसी कि यूरोप की मीडिया ने उसके संक्रमण काल में निभाया था। ऐसा वह पुरातन, सामंती विचारों और व्यवहारों जातिवाद, सांप्रदायिकता और अंध-मान्यताओं पर आक्रमण करते हुए और आधुनिक वैज्ञानिक और तार्किक विचारों को प्रोत्साहित करते हुए कर सकता है। लेकिन क्या हमारा मीडिया ऐसा कर रहा है?

मेरी राय में, भारतीय मीडिया का एक बड़ा हिस्सा (ख़ासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया) जनता के हितों को पूरा नहीं करता; वास्तव में, इनमें से कुछ यक़ीनन (सकारात्मक तौर पर) जन-विरोधी हैं। भारतीय मीडिया में तीन प्रमुख दोष हैं जिन्हें मैं रेखांकित करना चाहता हूँ। पहला, मीडिया अक्सर लोगों का ध्यान वास्तविक मुद्दों से अ-वास्तविक मुद्दों की भटकाता है। वास्तविक मुद्दे भारत में सामाजिक-आर्थिक हैं भयंकरतम ग़रीबी जिसमें हमारे 80 फ़ीसदी लोग जीते हैं, कठोरतम मंहगाई, स्वास्थ्य, शिक्षा ज़रूरतों की कमी और पुरातन-पंथी सामाजिक प्रथाएँ जैसे ऑनर किलिंग’, जातीय उत्पीड़न, धार्मिक कट्टरताएँ आदि। अपने कवरेज़ का अधिकांश हिस्सा इन मुद्दों को देने के बजाय, मीडिया अ-वास्तविक मुद्दों को केंद्रित करता हैजैसे फ़िल्म हस्तियाँ और उनकी जीवन-शैली, फ़ैशन परेड, पॉप संगीत, डिस्को डांस, ग्रह-नक्षत्र शास्त्र, क्रिकेट, रियलिटी शो और अन्य कई मुद्दे।

इसमें कोई आपत्ति नहीं हो सकती कि मीडिया लोगों को मनोरंजन मुहैया कराता है, लेकिन इसे अतिरेक में नहीं परोसा जाना चाहिए। इसके 90 फ़ीसदी कवरेज़ अगर मनोरंजन से संबंधित हैं और महज 10 फ़ीसदी ही ऊपर उल्लिखित वास्तविक मुद्दों के हैं तब तो कुछ ऐसा है जो गंभीर गड़बड़ है। इसके अनुपात की समझदारी उन्मादी हो चली है। स्वास्थ्य, शिक्षा, श्रम, कृषि और पर्यावरण सबको मिलाकर मनोरंजन को नौ गुना ज़्यादा कवरेज़ मिलता है। क्या एक भूखे या बेरोज़गार व्यक्ति को मनोरंजन चाहिए या भोजन और रोज़गार? उदाहरण के लिए, हाल ही में मैंने टेलीविज़न शुरू किया, और मैंने क्या देखा? कि मैडम गागा भारत आई हैं; करीना कपूर मदाम तुसॉद्स में अपनी मोम की मूर्ति के पास खड़ी हैं; एक व्यापारिक घराने को एक पर्यटक सम्मान दिया जा रहा है; फ़ॉर्मूला वन रेसिंग आदि इत्यादि। इन सारी बातों का जनता की समस्याओं से क्या लेना देना है? कई चैनल दिनभर और दिन के बाद भी क्रिकेट दिखाते रहते हैं। रोमन शासक कहा करते थे: अगर आप लोगों को रोटियाँ नहीं दे सकते तो उन्हें सर्कस दिखाइए।लगभग यही नज़रिया भारतीय सत्ता-स्थापनाओं का भी है जिसे दोहरे तौर पर हमारा मीडिया भी सहयोग देता है। लोगों को क्रिकेट में व्यस्त रखो, ताकि वे अपनी सामाजिक और आर्थिक दुर्दशा को भूल जाएँ। ग़रीबी और बेरोज़गारी महत्वपूर्ण नहीं हैं, जो महत्वपूर्ण है वह ये कि भारत ने न्यूजीलैंड को हराया (या पाकिस्तान हो तो और भी बेहतर), या तेंदुलकर या युवराज ने ने शतक मारा। हाल ही में, द हिंदू ने प्रकाशित किया कि पिछले 15 सालों में ढाई लाख किसानों ने आत्महत्या की है। लैक्मे फ़ैशन सप्ताह 512 आधिकारिक पत्रकारों द्वारा कवर किया गया। उस फ़ैशन सप्ताह में, महिलाएँ सूती कपड़ों का प्रदर्शन कर रही थीं, जबकि कपास उगाने वाले पुरुष और महिलाएँ नागपुर तक की एक घंटे की हवाई दूरी पर अपनी हत्या कर रहे थे। एक या दो स्थानीय पत्रकारों को छोड़, किसी ने इस कहानी को नहीं बताया।

यूरोप में, विस्थापित किसानों को औद्योगिक क्रांति द्वारा स्थापित कारख़ानों में रोज़गार मिल गए थे। भारत में, दूसरी ओर, औद्योगिक रोज़गार अब मुश्किल से मिलते हैं। कई कारख़ाने बंद हो गई हैं और अब रियल स्टेटमें तब्दील हो गए हैं। विनिर्माण क्षेत्र में पिछले पंद्रह सालों में रोज़गार में तीव्र गिरावट देखी गई है। मिसाल के लिए, टिस्को ने 1991 में 85,000 श्रमिक नियुक्त किए थे जो तब 10 लाख टन स्टील का उत्पादन करते थे। 2005 में, इसने 50 लाख (5 मिलियन) टन स्टील का उत्पादन कियालेकिन यह सिर्फ़ 44,000 श्रमिकों के द्वारा किया गया। 90 के दशक के मध्य में बजाज 10 लाख दो पहिया वाहनों का उत्पादन करता था जिसमें 24,000 श्रमिक कार्यरत थे। 2004 तक यह 10,500 श्रमिकों के साथ 24 लाख (2.4 मिलियन) वाहनों का उत्पादन कर रहा था।

तब ये लाखों विस्थापित किसान कहाँ गए? वे शहर जाते हैं जहाँ वे घरेलू नौकर, सड़कों के किनारे ठेले-खोमचे वाले या, यहाँ तक कि अपराधी भी, बन जाते हैं। यह अनुमान लगाया गया है कि झारखंड की एक से दो लाख कम उम्र की लड़कियाँ दिल्ली में घरेलू नौकरानी का काम कर रही हैं। क्रूरतम ग़रीबी के चलते सभी शहरों में शारीरिक धंधे भयानक हैं। ये सभी चीज़ें हमारे मीडिया द्वारा नज़रअंदाज़ की जाती हैं, जो हमारे अस्सी फ़ीसदी लोगों की कठोर आर्थिक वास्तविकताओं के प्रति नेल्सन की आँख जैसे नज़र फेरे हुए है, और बदले में कुछ चमकते दमकते पोतेमकिन गाँवों की ओर सारा ध्यान गड़ाए हुए है।

दूसरा, मीडिया अक्सर ही लोगों को विभाजित करता है। जब कभी भारत में कहीं भी कोई बम विस्फ़ोट होता है, कुछेक घंटों के भीतर ही टीवी चैनल कहना शुरू कर देते हैं कि इंडियन मुजाहिदीन या जैश-ए-मोहम्मद या हरकत-उल-जिहाद-ए-इस्लाम से ज़िम्मेदारी कबूल करते हुए उन्हें एक ई-मेल या एसएमएस मिला है। यह नाम हमेशा ही एक मुस्लिम नाम होता है। अब ये ई-मेल या एसएमएस कोई भी ऐसे बुरे इरादों वाला आदमी भेज सकता है जिसका मक़सद सांप्रदायिक नफ़रत फैलाना हो। उन्हें टीवी स्क्रीन पर और अगले ही दिन प्रिंट मीडिया में क्यूँ दिखाया जाना चाहिए? इसके दिखाने का सीधा संदेश यह देना होता है कि सभी मुसलमान आतंकी हैं या बम-बाज़ हैं।

आज भारत में रहने वाले तक़रीबन 92 से 93 फ़ीसदी लोग विभिन्न तरह के विस्थापित जड़ों से ताल्लुक रखते हैं। अतः भारत में एक ज़बर्दस्त विविधता है: कई सारे धर्म, जातियाँ, भाषाएँ, नृजातीय समूह। यह बेहद ज़रूरी है कि अगर हम लोगों को एकजुट और समृद्ध रखना चाहते हैं तो सारे समुदायों के प्रति सहिष्णुता और समानता हो। जो भी हमारे लोगों के बीच विभाजन के बीज बोता है, चाहे यह धर्म या जाति या भाषा या क्षेत्रीयता किसी के भी आधार पर हो, वह वास्तव में हमारी जनता का दुश्मन है।

अतः ऐसे ई-मेल या एसएमएस को भेजने वाले भारत के दुश्मन हैं, जो हमारे बीच में धार्मिक आधार पर तनाव के ज़हरीले बीज बोना चाहते हैं। तो फिर मीडिया, चाहे या अनचाहे तरीक़े से, इस राष्ट्रीय अपराध का सह-भागी क्यूँ बन जाता है?

अनुवाद- अनिल मिश्र

(उच्चतम न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश मार्केंडेय काटजू फ़िलवक़्त प्रेस आयोग के अध्यक्ष हैं।)

(अनुवादक अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में शांति-प्रक्रिया में भारत और पाकिस्तान की मीडिया की भूमिकापर शोध कर रहे हैं।)

इंडियन एक्सप्रेस, 04 नवंबर 2011 को प्रकाशित