Wednesday, August 29, 2012

सांची में खोला जाएगा बौद्ध विश्वविद्यालय


 "साँची बौद्ध विश्वविद्यालय", साँची 
भोपाल. बौद्ध धर्मावलंबियों के मध्यप्रदेश में स्थित विश्व प्रसिद्ध धार्मिक स्थल सांची में अंतर्राष्ट्रीय स्तर का एक विश्वविद्यालय स्थापित किया जाएगा. विश्वविद्यालय का शिलान्यास आगामी 21 सितंबर को किया जाएगा. राज्य के उच्च शिक्षा एवं संस्कृति मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा ने आज यहां पत्रकारों को बताया कि बौद्ध विश्वविद्यालय स्थापित करने की घोषणा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने की थी. इसी के अनुरूप राज्य के संस्कृति विभाग ने सांची में "सांची बौद्ध विश्वविद्यालय" की स्थापना की योजना बनायी है. इसके शिलान्यास के मौके पर देश-विदेश के बौद्ध विद्वान और अन्य गणमान्य व्यक्ति मौजूद रहेंगे. शर्मा ने बताया कि राज्य सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर का बौद्ध विश्वविद्यालय खोलने के संबंध में केंद्र सरकार के साथ पत्राचार किया था, लेकिन उसने कहा कि फिलहाल अंतर्राष्ट्रीय स्तर का विश्वविद्यालय नहीं खोला जा सकता है. इसके बाद राज्य सरकार ने अपने ही संसाधनों से सांची में बौद्ध विश्वविद्यालय खोलने की योजना पर अमल करने का निर्णय लिया. शर्मा ने कहा कि बौद्ध धर्म से संबंधित विश्व का पहला विशेष सम्मेलन "धर्म-धम्म" भोपाल में 22 और 23 सितंबर को आयोजित किया जाएगा. इसमें देश के साथ ही 22 देशों के बौद्ध धर्म के विद्वान और अन्य लोग उपस्थित होंगे. इसमें शामिल होने के लिए आने वाले विद्वान 21 सितंबर को सांची में बौद्ध विश्वविद्यालय के शिलान्यास के अवसर पर मौजूद रहेंगे.
बौद्ध धर्म के विख्यात विद्वान भोपाल में जुटेंगे अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में:-मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में बौद्ध धर्म से जुड़ा विश्व का अपने तरह का पहला अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन यहां 22 सितंबर को प्रारंभ होगा, जिसमें चीन, इजराइल और जापान समेत 22 देशों के प्रतिनिधि शिरकत करेंगे. इस दो दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का उदघाटन थाईलैंड की राजकुमारी महाचक्री शिरिन्धौर करेंगी. "धर्म-धम्म" से जुड़ी एकरूपताओं और भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में विभिन्न विषयों पर चर्चा के लिए आयोजित इस सम्मेलन में ब्रिटेन, फ्रांस, नीदरलैंड, वियतनाम, मिश्र, इंडोनेशिया और  अन्य देशों के प्रतिनिधि शिरकत करेंगे. इसमें डॉ.भदन्त आनन्द कौसल्यायन बौद्ध अध्ययन केन्द्र, महात्मा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय , वर्धा के प्रभारी अध्यक्ष डॉ. सुरजीत कुमार सिंह को भी जाने का अवसर मिल रहा है.
                                                                                                   नबभारत Tuesday, 21 August 2012 20:13 

Sunday, August 5, 2012

Elephantas Caves


ऐलीफेंटा गुफाएं: बेमिसाल कला का नमूना


इसी महीने विश्व विख्यात ऐलीफेंटा गुफाओं में सालाना महोत्सव का आयोजन किया गया। इस दौरान नृत्य व संगीत के क्षेत्र की कई हस्तियों ने यहां अपने फन का जादू बिखेरा। आप अगर वहां जाने का यह मौका चूक भी गए हों तो कोई हर्ज नहीं क्योंकि यहां साल में किसी भी वक्त जा सकते हैं।
खजुराहो की ही तरह इन्हें भी यूनेस्को की तरफ से विश्व विरासत का दरजा मिला हुआ है। इन्हें यह दरजा 1987 में दिया गया था। ऐलीफेंटा द्वीप पर स्थित ये गुफाएं शैव मतावलंबियों का महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि शिव के विभिन्न रूपों वाली कई अद्भुत प्रतिमाएं यहां मौजूद हैं। ये प्रतिमाएं न केवल उस समय की मूर्तिकला के बारे में बल्कि धार्मिक मान्यताओं के बारे में भी कई बातें कहती हैं।

इतिहास
ये गुफाएं कब गढ़ी गईं, इस बारे में बिलकुल पुष्ट तौर पर जानकारी कम ही मिलती है। कहा जाता है कि सिल्हारा राजाओं ने नौंवी से लेकर तेरहवीं सदी ईस्वी के बीच इन्हें बनवाया। मन्याखेटा (मौजूदा कर्नाटक) के तत्कालीन राष्ट्रकूट राजाओं का शिल्प भी कई मूतियों में झलकता है। रोचक बात यह है कि यह समय भारतीय शिल्प के लिहाज से स्वर्णिम दौर था जब उत्तर में चंबा और मध्य भारत में खजुराहो से लेकर पूर्व में कोणार्क तक के मंदिर बनवाए गए। ये सभी शिल्प की दृष्टि से इतिहास की अमूल्य धरोहर हैं। कोंकणी मौर्योके समय तक इस द्वीप को घारापुरी कहा जाता था। बाद में एक हाथी की प्रतिमा मिलने से इसे ऐलीफेंटा नाम मिल गया।
ऐलीफेंटा गुफाओं को इस तरह से गढ़ा गया था कि प्रतिमाओं समेत साठ हजार वर्ग फुट में फैला समूचा परिसर ही अपने आप में एक शिल्प सरीखा प्रतीत होता है। चट्टानों को काट-काटकर अंदर की जगह, स्तंभ और दीवारों पर दैवरूप तैयार किए गए। इस मायने में यह समूचा शिल्प बेजोड़ लगता है। इसका दूर समुद्र में एक द्वीप पर होना तो इसे और भी हैरतअंगेज बनाता है। परिसर में बने लंबे गलियारों और कक्षों को देखकर हैरत होती है कि इन्हें पहाड़ के भीतर कैसे गढ़ा गया होगा। इनमें से कई जगह कोरी चट्टानें जस की तस हैं तो कई चट्टानों पर इतना बारीक काम है कि दांतों तले उंगली दबानी पड़े। यहां शिव की ज्यादातर प्रतिमाएं आदमकद या उससे भी बड़ी हैं। परिसर में एक मुख्य कक्ष है। अलग-बगल कई और मंदिर भी हैं। जबकि मुख्य मंदिर के ऊपर का हिस्सा कोरी चट्टानों का है। मंदिर में प्रवेश के तीन द्वार हैं। पूर्वी व पश्चिमी द्वारों को जोड़ने वाला गलियारा ही एक तरह से मंदिर की धुरी है जिसमें बीस स्तंभ गढ़े गए हैं।

शिव की त्रिमूर्ति
ऐलीफेंटा में शिव की त्रिमूर्ति अपने आप में ऐसी प्रतिमा है केवल जिसे देखने ही ऐलीफेंटा जाया जा सकता है। कई इतिहासकार ईश्वर के भौतिक स्वरूप को दरशाने वाली इस त्रिमूर्ति को पूरी दुनिया में बेमिसाल बताते हैं। हिंदू मान्यता में त्रिमूर्ति में ब्रह्मा, विष्णु, महेश को दरशाया जाता है। लेकिन यह बीस फुट ऊंची त्रिमूर्ति महेश यानी शिव के ही तीन रूपों की है। एक चेहरे में शिव को उत्तेजक होठों वाले युवा के रूप में दिखाया गया है। यह छवि सृष्टि के रचियता ब्रह्मा से मिलती-जुलती है। दूसरा चेहरा मूंछधारी युवा का है जिसके चेहरे से गुस्सा झलक रहा है। यह छवि विनाशक रुद्र से मिलती है। तीसरा चेहरा जो मध्य में है, वह पालक सरीखे शांत और ध्यानमग्न व्यक्ति का है। यह योगेश्वर की छवि देता है। यानी पारंपरिक रूप से जो छवियां ब्रह्मा, विष्णु व महेश की रही हैं, वे तीनों छवियां शिव के ही रूपों में दिखाई गई हैं। कहा यह भी जाता है कि यह पंचमुखी शिव के ही तीन चेहरे हैं जो चट्टान पर गढ़े गए हैं। इसी तरह ऐलीफेंटा गुफाओं की दक्षिण दीवार पर कल्याणसुंदरा, गंगाधरा, अर्धनारीश्वर व उमा महेश्वर के रूप में शिव की प्रतिमाएं हैं। उत्तरी प्रवेश द्वार के बाई ओर नटराज और दाई ओर योगीश्वर के रूप में भी शिव की मूर्तियां हैं। यहां महेश शिवलिंग के रूप में भी हैं और विभिन्न रूपों में भी। मुख्य मंदिर के पूरब में एक अन्य मंदिर के कक्ष में शिव पुराण से जुड़ी कहानियां दरशाई गई हैं।

ऐलीफेंटा गुफाएं बाम्बे हार्बर में एक द्वीप पर स्थित हैं। मुंबई में गेटवे ऑफ इंडिया के निकट स्थित अपोलो बंदर से यहां के लिए रोजाना दिन में कई बार मोटर लांच चलते हैं जो लगभग घंटे भर में नौ समुद्री मील दूर गुफाओं में पहुंचा देते हैं। मानसून के दौरान यहां जाने में दिक्कत होती है और उस समय मोटरबोट सेवा स्थगित भी हो सकती है। लिहाजा यहां जाने का सर्वश्रेष्ठ समय नवंबर से मार्च तक है। टिकट व बोट के जाने के समय की जानकारी गेटवे ऑफ इंडिया पर मिल जाती है। सोमवार को यहां प्रवेश बंद होता है और शुक्रवार को प्रवेश मुफ्त रहता है। द्वीप पर जहां नाव उतारती हैं, वहां से गुफाओं तक सीढि़यां जाती हैं। यहां महाराष्ट्र पर्यटन का होटल व रेस्तरां भी है लेकिन द्वीप पर रात में रुकने की इजाजत नहीं है। शाम पांच बजे सभी पर्यटकों को द्वीप छोड़ना होता है

BUDDHIST SITES IN ORISSA. BUDDHISM IN ORISSA.


उड़ीसा में बौद्ध धर्म के प्रमुख केंद्र


उड़ीसा में ऐसी कई जगहें हैं, जिनके  बारे में अभी भी पूरी जानकारी दुनिया को नहीं है। प्रकृति के चमत्कारों के अलावा यहां बौद्ध धर्म से जुड़े अवशेष भी हैं। जिस तरह कपिलवस्तु, बोधगया व सारनाथ का संबंध भगवान बुद्ध के जीवन से है, वैसे ही उड़ीसा का संबंध उनके दर्शन से है। राज्य के लगभग हर हिस्से से बौद्ध दर्शन से जुड़ी  चीजें मिल चुकी हैं। 261 ई. पू. में हुए कलिंग युद्ध के बाद यहां बौद्ध धर्म की लोकप्रियता बढ़ी। इसके बाद ही सम्राट अशोक का हृदयपरिवर्तन हुआ और सुदूर पूर्व व दक्षिण एशिया में बौद्ध धर्म का विस्तार शुरू हुआ। उड़ीसा से बौद्ध धर्म के जुड़ाव के प्रमाण चीनी यात्री ह्वेन सांग की डायरी, अशोक के समय व उनके बाद के स्तूप, ताम्रपत्र, बौद्ध साहित्य और तमाम चित्रों से भी मिलते हैं।
चीनी यात्रियों फाह्यान व ह्वेन सांग के अनुसार यहां बौद्ध धर्म महायान और हीनयान आदि सभी रूपों में मौजूद था। बौद्ध धर्म की तांत्रिक शाखा के कई रूपों वज्रयान, कालचक्रयान व सहजयान आदि का उड़ीसा बड़ा केंद्र था। वैसे राज्य के सभी क्षेत्रों में महत्वपूर्ण बौद्ध पुरावशेष मौजूद हैं, पर बौद्ध शिल्प व दस्तावेजों का बड़ा खजाना रत्नगिरि, ललितगिरि और उदयगिरि में है। इनसे जुड़ी लांगुडी की पहाडि़यों में भी हाल ही में कुछ चित्र मिले हैं, जो सम्राट अशोक के बताए गए हैं।
रत्नगिरि
भुवनेश्वर से करीब 100 किलोमीटर दूर स्थित यह पहाड़ी ब्राह्मणी, किम्हिरिया और बिरूपा नदियों से घिरी है। सन 1985 में हुई खुदाई के दौरान यहां से एक विशाल स्तूप, दो बड़े मठ, एक छोटा मठ, कई छोटे-छोटे स्तूप, शिलालेख, कांसे की प्रतिमाओं और टेराकोटा मुद्राओं के अलावा कई अवशेष पाए गए थे। यहां ईटों से बने विशाल स्तूप के अवशेषों से पता चलता है कि कभी श्री रत्नगिरि महाविहार आर्यभिक्षु संघ यहीं रहा है। यहां पाई गई 5वीं से 13वीं शताब्दी के बीच की मुद्राओं से भी जाहिर होता है कि उस समय यहां बौद्ध धर्म का गहरा प्रभाव था। यहां पत्थर के स्तूपों पर वज्रयान के प्रतीक भी खुदे हैं, जिनसे यहां तांत्रिक बौद्धों के प्रभाव की पुष्टि होती है। यहां मिली भगवान बुद्ध, बोधिसत्व, तारा व कई देवी-देवताओं की प्रतिमाओं से भी ऐसा जाहिर होता है। इससे जुड़े संग्रहालय में कई अभिलेख, कलाकृतियां व दस्तावेज सुरक्षित हैं।
ललितगिरि

रत्नगिरि के पास मौजूद ललितगिरि का महत्व 1985 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा की गई खुदाई के बाद पता चला। यहां बौद्ध धर्म के देवी-देवताओं की मूर्तियों समेत सैकड़ों कलाकृतियां मिली थीं। अपने अनुभवों तथा रीति-रिवाजों को संरक्षित रखने के लिए उड़ीसा के लोगों ने अनूठी विधि ईजाद की है। यह जानकारी एक स्तूप पर लगे शिलालेखों से मिली। खांडोली पत्थर पर बने इस शिलापत्र पर भगवान बुद्ध के जीवन से जुड़ी कथाएं चित्रित हैं। यहां पत्थरों व पक्की ईटों से बने तीन बौद्ध विहार पाए गए हैं। खुदाई के दौरान यहां मिली कलाकृतियों में सबसे महत्वपूर्ण वह है जिसमें भगवान बुद्ध का स्वर्ग से अवतरण दिखाया गया है।
उदयगिरि
रत्नगिरि से पांच और भुवनेश्वर से करीब 90 किलोमीटर की दूरी पर मौजूद उदयगिरि कभी बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र था। यहां दो बौद्ध मठ तथा एक विशाल स्तूप के अवशेष मिल चुके हैं। स्तूप के चारों कोनों पर ध्यान मुद्रा में भगवान बुद्ध की प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हैं। इसमें भूमिस्पर्श, धर्मचक्र, अभय, वरद तथा ध्यान मुद्रा में भगवान बुद्ध की छवियां भी बनी हैं। यहां मिली चीजों में मिट्टी की अभिलिखित मुद्राएं अति महत्वपूर्ण हैं।
लांगुडी पर्वत

रत्नगिरि, उदयगिरि और ललितगिरि से थोड़ी ही दूरी पर मौजूद है लांगुडी हिल। केलुआ नदी के तट पर स्थित इस स्थल की दूरी भुवनेश्वर से 85 किलोमीटर है। खुदाई के दौरान यहां से सम्राट अशोक के दो चित्र प्राप्त किए गए। ध्यान रहे कि यही एक जगह है जहां अशोक के चित्र मिले हैं। पत्थरों को काट कर बनाया गया स्तूप तथा यहां से प्राप्त कुछ अन्य महत्वपूर्ण कलाकृतियां भी इस बात की सबूत हैं कि किसी समय यह बौद्ध धर्म का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है।
अन्य स्थल
उड़ीसा में ऐसा एक भी जिला नहीं है, जहां बौद्ध धर्म से जुड़ी कुछ न कुछ चीजें न पाई गई हों। इन जगहों में प्राची घाटी में स्थित कुरुमा, चौरासी, जुइंती, खुर्दा जिले में बानपुर, पुरी जिले में विश्वनाथ हिल्स और अष्टरंग, कटक जिले में चौद्वार, कुरुकुल्ला व लटहारन, जाजपुर जिले में जाजपुर, सोलमपुर व खादीपाड़ा, केंद्रपारा में केंद्रपारा, बालासोर में बालासोर व अयोध्या, गंजम में जूनागढ़ व बुद्धाखोल, मयूरभंज जिले में खिछिंग, उडाला और बड़ीपदा, संभलपुर जिले में गनियापल्ली व मेल्चामुंडा, बौद्ध जिले में बाद्ध, सोनपुर जिले में सोनपुर तथा बोलांगीर जिले में बिनका आदि भी उड़ीसा में बौद्ध धर्म के प्रमुख केंद्र रहे हैं।
जरूरी जानकारियां
निकटतम हवाई अड्डा : भुवनेश्वर
निकटतम रेलवे स्टेशन : जाजपुर-क्योंझर  सड़क से भी यहां पहुंचा जा सकता है भुवनेश्र्वर से आप पूरे बौद्ध परिपथ की यात्रा ओटीडीसी बस या टैक्सी या फिर कार से कर सकते हैं।
ठहरना : ठहरने के लिए आप को पथराजपुर या भुवनेश्वर में कई अच्छे होटल मिल सकते हैं

नालंदा विश्‍वविद्यालय, NALANDA UNIVERSITY

नालंदा विश्‍वविद्यालय, जहाँ ज्ञान प्राप्‍त किए बिना शिक्षा अधूरी मानी जाती थी---सुबोध कुमार नंदन

नालंदा विश्‍वविद्यालय की स्‍थापना सम्राट अशोक ने बौद्ध विहार के रूप में करवाई थी। एक लंबे समय तक यहाँ बौद्ध विषयों का अध्‍ययन-अध्‍यापन चलता रहा। विश्‍वविद्यालय के रूप में इसका अभ्‍युदय गुप्‍त शासक कुमार गुप्‍त के शासन काल में हुआ। कुमार गुप्‍त (414-455) के पश्‍चात् अन्‍य गुप्‍तवंशीय सम्राटों (तथागत गुप्‍त नरसिंह गुप्‍त एवं बालादित्‍य) ने भी इसके विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया और यहाँ एक-एक विहार का निर्माण करवाया। लगभग 11वीं शताब्‍दी तक हिंदू तथा बौद्ध राजाओं ने विहारों के निर्माण की यह परंपरा कायम रखी। परिणामस्‍वरूप शिक्षा और ज्ञान के केंद्र के रूप में नालंदा की ख्‍याति अंतरराष्‍ट्रीय हो गई। ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं कि तथागत बुद्ध के जीवन काल में भी नालंदा एक सांस्‍कृतिक केंद्र था, किंतु उनके समय में विश्‍वविद्यालय की स्‍थापना नहीं हुई थी। नालंदा विश्‍वविद्यालय उदारता के लिए प्रसिद्ध था। इस विश्‍वविद्यालय की स्‍थापना कब और कैसे हुई, उसका ठीक-ठाक पता नहीं, परंतु यह एक बहुत बड़ा अंतरराष्‍ट्रीय विश्‍वविद्यालय था और हर्ष के युग में यह अपने चरमोत्‍कर्ष पर था। प्रसिद्ध इतिहासकार लामा तारानाथ के अनुसार बुद्ध के शिष्‍य सारिपुत्र की जन्‍मभूमि होने से नालंदा विशेष आकर्षण का केंद्र बना। नालंदा विश्‍वविद्यालय की प्रसिद्धि ‌का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इसकी तुलना मध्‍ययुग में फ्रांस के क्‍लूंनी और वलेयरबॉक्‍स से की जाती है।
अनेक चीनी विद्वान इसका यश सुनकर यहाँ अध्‍ययन के लिए आए और स्‍वदेश लौटकर उन्‍होंने नालंदा विश्‍वविद्यालय की शिक्षा प्रणाली की भूरि-भूरि प्रशंसा की। हर्ष के शासन काल में प्रसिद्ध चीनीयात्री ह्वेनसांग भी अध्‍ययन करने नालंदा आया था। इस शृंखला में इत्‍सिंग अंतिम था जो 673 ई. में यहाँ पहुँचा।
नालंदा संस्‍कृत शब्‍द नालम् + दा से बना है। संस्‍कृत में नालम का अर्थ कमल होता है। कमल ज्ञान का प्रतीक है। नालम् + दा यानी कमल देनेवाली, ज्ञान देनेवाली। कालक्रम से यहाँ महाविहार की स्‍थापना के बाद इसका नाम नालंदा महाविहार रखा गया।
नालंदा विश्‍वविद्यालय के कुलपति के पद पर आसीन होने की एकमात्र कसौटी थी—विद्वत्ता में सर्वोपरि होना। उम्र या शिक्षण अनुभव के आधार पर इनकी नियुक्‍ति नहीं होती थी। इस विश्‍वविद्यालय के पहले कुलपति थे नागार्जुन, जो अपने समय के सर्वश्रेष्‍ठ महायानी दार्शनिक थे। उनकी ख्‍याति प्रसिद्ध रसायनविद् के रूप में दूर-दूर तक फैली हुई थी। उस समय विश्‍वविद्यालय के प्रधानाचार्य उद्भट विद्वान शीलभद्र थे। उन्‍हें सोलह भाषाओं का ज्ञान था और वे अनेक विधाओं के पारंगत आचार्य थे। यहाँ के अन्‍य प्रमुख कुलपतियों में आर्यवेद, असंग, वसुबंधु, धर्मपाल, राहुल, शीलभद्र और चंद्रपाल, प्रभाकर मित्र, अश्‍वघोष, पद्मसंभव के नाम उल्‍लेखनीय हैं। युवानच्‍वांग ने लिखा है कि नालंदा के सहस्र विद्वान आचार्यों में से कई ऐसे थे जो सूत्र और शास्‍त्र जानते थे। यहाँ हस्‍तकौशल की शिक्षा का भी सुप्रबंध था। यहाँ सौ ऐसी वेदियाँ थीं, जहाँ से शिक्षक व्‍याख्‍यान दिया करते थे। विश्‍वविद्यालय के प्रबंधक का नियामक महास्‍थाविर होता था, जिसके सहायतार्थ दो परिषदें रहती थीं।
नालंदा विश्‍वविद्यालय में प्रवेश के लिए बड़ी भीड़ होती थी, न केवल भारत से अपितु विदेशों से भी विद्यार्थी ज्ञान प्राप्‍ति के लिए यहाँ आते थे। फाहियान, ह्वेनसांग व इत्‍सिंग के
अतिरिक्‍त चीन, कोरिया, तिब्‍बत और मध्‍य एशिया से नालंदा आनेवाले विद्यार्थियों की एक लंबी तालिका दिखाई पड़ती है। यहाँ पर विद्यार्थी ज्ञान प्राप्‍त करते ही थे, इसके साथ ही यहाँ के पुस्‍तकालयों में सुलभ महत्त्वपूर्ण बौद्ध ग्रंथों की नकल भी कर लेते थे। प्रवेश के नियम कठिन थे।
विश्‍वविद्यालय में प्रवेश-द्वार पर बैठा द्वार-पंडित विश्‍वविद्यालय में प्रवेश के लिए इच्‍छुक छात्रों की परीक्षा लेता था। जो छात्र उसके द्वारा ली गई परीक्षा में पास हो जाते थे, उन्‍हें विश्‍वविद्यालय में प्रवेश मिल जाता था। शेष को अपने घर लौटना पड़ता था। प्रवेश परीक्षा अत्‍यंत कठिन होती थी, प्रवेश के लिए आए हुए छात्रों में से केवल 10 फीसदी छात्र ही सफल हो पाते थे। हजारों ‌किलोमीटर दूर की कष्‍टदायक पदयात्रा कर नालंदा में पढ़ने के लिए प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग, युवान च्‍वांग, या-कि बहुवैनन, चुवानिह, डिछ-निह, आर्यवर्मन, हाइनीज, फाहियान, इत्‍सिंग आदि अनेक विद्यार्थी, चीन, जापान, कोरिया, तिब्‍बत और तोखरा से नालंदा में अध्‍ययनार्थ आए। नालंदा में विद्यार्थियों की संख्‍या कितनी रही होगी, इस विषय पर मतांतर है। इत्‍सिंग के अनुसार यह संख्‍या तीन हजार के लगभग थी जबकि ह्वेनसांग दस हजार छात्रों की चर्चा करता है। फिर भी एक निश्‍चित मत के अनुसार यह तो कहा ही जा सकता है कि हर्ष के समय में छात्रों की सख्‍या पाँच हजार के लगभग थी।
यहाँ अध्‍ययन के लिए दो प्रकार के छात्र होते थे। एक तो वे, जो विद्याध्‍ययन के बाद बौद्ध भिक्षुक बनकर संघ में प्रवेश करते थे। दूसरे वे विद्यार्थी, जो विद्याध्‍ययन के बाद सांसारिक जीवन में जाते थे। ऐसे विद्यार्थी ब्रह्मचारी या मानव कहलाते थे, जो लोग भिक्षुक बनने के इच्‍छुक न थे लेकिन यहाँ अध्‍ययन करना चाहते थे। उन्‍हें अपना भोजन व्‍यय स्‍वयं उठाना पड़ता था या फिर विश्‍वविद्यालय के लिए शारीरिक श्रम करना होता था। नालंदा विश्‍वविद्यालय के अधिकांश विद्यार्थी काषाय वस्‍त्रधारी भिक्षु होते थे, जिनके रहने के लिए मठ बने थे। विश्‍वविद्यालय के कार्यक्रमों का नियमन कर्मदान नामक अधिकारी करता था। वही यह निश्‍चित करता था कि किस विद्यार्थी को क्‍या-क्‍या काम करना है। फाहियान ने लिखा है कि प्रतिदिन विश्‍वविद्यालय का कार्यक्रम घाटिका की सहायता से तैयार किया जाता था। घंटे की आवाज पर शयन, जागरण, भोजन, अध्‍ययन, पूजा आराधना आदि होते थे। संघाराम की एक-एक कोठरी में एक विद्यार्थी के रहने का प्रबंध था, जिसमें पत्‍थर की पट्टियों का शयनासन बना हुआ था। सभा तथा सामूहिक गोष्‍ठी के लिए अलग-अलग प्रशस्‍त मंडप थे, जिनमें 2000 भिक्षु एक साथ बैठ सकते थे।
विश्‍वविद्यालय की व्‍यवस्‍था अनुदान में प्राप्‍त हुए दो सौ गाँवों से चलती थी। विद्यार्थियों को निःशुल्‍क शिक्षा दी जाती थी। रहने, खाने एवं कपड़े की व्‍यवस्‍था स्‍वयं विश्‍वविद्यालय करता था।
नालंदा में भिक्षुओं के अतिरिक्‍त कुछ अन्‍य लोग भी शिक्षा प्राप्‍त करने आते थे। यहाँ शिक्षा प्राप्‍त करनेवाले विद्यार्थियों में हिंदू छात्रों की संख्‍या ज्‍यादा रही होगी, तभी तो हिंदू शासक उस विश्‍वविद्यालय के उत्‍थान में अत्‍यंत सक्रिय दिखाई पड़ते थे। विद्यार्थियों को सा‌त्‍विक एवं पौष्‍टिक भोजन मिलता था। भोजन इस प्रकार था—प्रातः चावल का पानी, दोपहर में चावल, मक्‍खन, दूध, फल, घी और मीठे तरबूज और शाम को हल्‍का भोजन। विश्‍वविद्यालय की अपनी मुद्रा थी, जिस पर श्री नालंदा महाविहार आर्य भिक्षुसंघस्‍य लेख उत्‍कीर्ण था। उससे संबद्धा जो विहार या विद्यालय थे, उनकी अलग-अलग मुद्राएँ थीं।
चीनीयात्री इत्‍सिंग भी नालंदा आया था। उसने नालंदा में रहकर शिक्षा और विशेषज्ञता प्राप्‍त की थी। उसने नालंदा विश्‍वविद्यालय में स्‍थित प्रमुख पुस्‍तकालयों का विशेष रूप से वर्णन किया है।
तिब्‍बती स्रोतों से पता चलता है कि नालंदा के ग्रंथालयों में हस्‍तलिखित ग्रंथों की कितनी विशाल संपदा थी। लामा तारानाथ और 18वीं शती के अन्‍य तिब्‍बती लेखक जिन्‍होंने बौद्ध धर्म के इतिहास लिखे हैं, इस संपदा के बारे में लिखते हैं कि विश्‍वविद्यालय के अहाते का बहुत बड़ा घेरा इन ग्रंथालयों के लिए अलग से रखा गया था और उस पर बड़ी-बड़ी, कई मंजिलोंवाली इमारतें थीं। उनमें से तीन के सुंदर नाम थे। रत्‍नसागर, रत्‍नोदधि और रत्‍नरंजक। इनमें सबसे बड़ा पुस्‍तकालय रत्‍नोदधि था, जिसका विस्‍तार नौ खंडों में था। उन खंडों में बहुमूल्‍य ग्रंथ और पांडुलिपियाँ सिलसिलेवार रखी हुई थीं। पुस्‍तकाध्‍यक्ष कोई वरिष्‍ठ प्राचार्य होता था। इन पुस्‍तकालयों में पांडुलिपियाँ तथा प्रतिलिपियाँ तैयार करने में अनेक भिक्षु और छात्र कार्यरत रहते थे। ह्वेनसांग ने नालंदा में रहकर करीब सात सौ ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ तैयार कीं और इन्‍हें बहुमूल्‍य धरोहर मानकर अपने देश चीन ले गया। उसी परंपरा में इत्‍सिंग ने भी प्रतिलिपि लेखन का कार्य किया और वैदिक तथा बौद्ध साहित्‍य के चार सौ ग्रंथ की प्रतियाँ सहेजकर चीन ले गया।
नालंदा के कई हस्‍तलिखित ग्रंथ कैंब्रिज ऑफ लंदन पुस्‍तकालय में प्राप्‍त हुए हैं। 11-12वीं शताब्‍दी में नालंदा में महायान बौद्ध धर्म के विख्‍यात भष्‍ट्रसाहसिका प्रज्ञापारामति नामक शास्‍त्र गंथ की पोथी थी। उसकी प्रतियाँ इस समय नेपाल तथा लंदन की रायल एशियाटिक सोसाइटी और ऑक्‍सफोर्ड की बटालियन लाइब्रेरी में सुरक्षित हैं।
ह्वेनसांग के अनुसार नालंदा में विशालकाय विश्‍वविद्यालय परिसर था, जिसमें संघाराम थे। सभी संघाराम एक ऊँची दीवारों से घिरे थे। इनके मध्‍य में विद्यापीठ स्‍थित थी। ऊँची दीवारों से सटे आठ आयताकार प्रकोष्‍ठ थे, जिनमें कक्षाएँ लगती थीं और आचार्यों के भाषण होते थे। दूसरी ओर कई वेधशालाएँ और कार्यशालाओं के भवन थे, जिनमें तरह-तरह के यंत्र लगे थे। उनसे जलवायु के अलावा ग्रह-नक्षत्रों की जानकारी प्राप्‍त की जाती थी। विहार के अलग चारमंजिला छात्रावास का भवन था, जिसमें पाँच हजार से अधिक छात्रों के निवास की व्‍यवस्‍था थी। संघारामों में अध्‍ययन करनेवाले भिक्षुओं की निम्‍न श्रेणियाँ थीं—श्रमनेर (निम्‍नतम श्रेणी), दहर (लघु मिक्षु), स्‍याविर, उपाध्‍याय और बहुश्रुत (श्रेष्‍ठतम श्रेणी)।
‌विहार का कार्यालय आठ घंटे का होता था। प्रातः और अपराह्न में चार घंटे काम करना पड़ता था। विद्यार्थियों की दिनचर्या सुबह चार बजे से शुरू हो जाती थी। नालंदा में पढ़नेवाले विदेशी विद्यार्थियों को भारतीय परिवेश में रहना पड़ता था। उनका नामकरण भी भारतीय संस्‍कार के अनुसार किया जाता था। नालंदा में अध्‍ययनरत रहते समय उनका विदेशी नाम हट जाया करता था। उदाहरण के तौर पर, शर्मन-ह्यून-चिन (प्रकाशभांति), वान-होंग यौब्‍दी (श्रीदेव), तोफांग (चंद्रदेव)।
नालंदा में दो प्रकार के पाठ्यक्रम थे—एक प्रारंभिक शिक्षा और दूसरा उच्‍च शिक्षा। प्रारंभिक शिक्षा को पूरा करके ही उच्‍च शिक्षा की पात्रता प्राप्‍त हो सकती थी। प्रारंभिक शिक्षा के लिए न्‍यूनतम आयु छह वर्ष और अधिकतम आठ वर्ष थी। प्रारंभिक पाठ्यपुस्‍तक का नाम सि‌‌द्धिरस्‍तु था, जिसमें वर्णमाला के 49 अक्षर होते थे। दूसरी पुस्‍तक जिसकी शुरुआत 8 वर्ष की अवस्‍था में होती थी, इनमें पाणिनि का व्‍याकरण होता था। इसके बाद धातु और कशिकावृ‌‌त्ति का अध्‍ययन होता था।
इत्‍सिंग के अनुसार—तरुण‌ विद्यार्थी हेतु विद्या और अभिधम कोश सीखते थे। न्‍याय द्वार तर्कशास्‍त्र सीखने से उनकी अनुमान शक्‍ति विकसित होती थी और जातक माला पढ़ने से उनकी कल्‍पना और विचार-शक्‍ति बढ़ती थी। भिक्षु केवल सब विनय सीखते थे, बल्‍कि समस्‍त सूत्रों एवं शास्‍त्रों का भी अनुसंधान करते थे।
नालंदा में पाँच विषयों की अनिवार्य पढ़ाई होती थी, जिसमें व्‍याकरण, शब्‍द विद्या, शिल्‍प शास्‍त्र विद्या, चिकित्‍सा विद्या हेतु विद्या (लॉजिक) तथा अध्‍यात्‍म विद्या प्रमुख थी। नालंदा में व्‍याख्‍यान, प्रवचन, वाद-विवाद और विमर्श के माध्‍यम से शिक्षा दी जाती थी। शिक्षा के विषय थे बौद्ध धर्म महायान, वज्रयान, सहजयान आदि संप्रदायों के धार्मिक साहित्‍य, तंत्र व ज्‍योतिष। इनके अलावा दर्शन, साहित्‍य, व्‍याकरण और कला की शिक्षा की भी व्‍यवस्‍था थी। चिकित्‍सा संबंधी शिक्षा अनिवार्य थी।
युआन च्‍वांग की जो जीवनी हुई-ली ने लिखा है, उसके अनुसार नालंदा में पढ़ाए जानेवाले विषयों का वर्णन दिया गया है। उसने लिखा है कि 18 पंथों के ग्रंथ पढ़ाए जाते थे, जिनमें वेद-वेदांग थे, हेतुविद्या, शब्‍द विद्या, चिकित्‍साविद्या, अर्थर्ववेद या मंत्रविद्या, संख्‍या आदि विद्याएँ थीं, साथ ही वे अन्‍य फुटकर ग्रंथों का भी सूक्ष्‍म अध्‍ययन करते थे। एक हजार व्‍यक्‍ति वहाँ ऐसे थे जो बीस सूत्र ग्रंथ और शास्‍त्र समझते थे। 500 ऐसे अध्‍यापक थे, जो ऐसे तीस ग्रंथ सिखा सकते थे और कदाचित दस ऐसे थे, जो पचास ग्रंथ समझ सकते थे। अकेले शीलभद्र ऐसे थे, जिन्‍होंने सारे ग्रंथ पूरी तरह पढ़े थे और सब ग्रंथों को समझा था।
इत्‍सिंग के अनुसार, विद्यार्थी के अध्‍ययन का एक मुख्‍य अनिवार्य विषय था संस्‍कृत व्‍याकरण। वे लिखते हैं कि पुराने अनुवादक संस्‍कृत भाषा के नियम हमें बताते...अब मुझे पूरा विश्‍वास है कि संस्‍कृत व्‍याकरण में संपूर्ण अध्‍ययन से इस अनुवाद में जो भी कठिनाई आएगी, दूरी हो जाएगी।
नालंदा विश्‍वविद्यालय में आमतौर पर छात्र दस वर्ष के लिए भरती किए जाते थे। बौद्ध भिक्षु बनने के लिए छात्र 20 वर्षों तक विद्यालय में रह सकते थे। शोध करनेवाले छात्र इससे अधिक समय तक नालंदा में रह सकते थे। ह्वेनसांग लिखित भारत यात्रा के विवरण गजेटियर स्‍वरूप में है। छाड़ राजवंश से पश्‍चिम की यात्रा में उन्‍होंने भारत के अनेक स्‍थानों का वर्णन किए हैं। इस पुस्‍तक में नालंदा का विस्‍तार से वर्णन है।
ह्वेनसांग ने महाविहार में होनेवाले वाद-विवाद की प्र‌क्रिया एवं उसमें सफलता के महत्त्व का उल्‍लेख किया है। ह्वेनसांग ने लिखा है कि एक बार लोकात्‍य समुदाय के एक आचार्य ने चालीस सिद्धांत लिखे और नालंदा महाविहार के विशाल द्वार पर सूचना लटका दिया। सूचना में था कि यदि कोई व्‍यक्‍ति इन सिद्धांतों को गलत सिद्ध कर दे तो उसकी विजय उपलक्ष्‍य में मैं अपना सिर दूँगा। ह्वेनसांग ने उस चुनौती को स्‍वीकार कर उस आचार्य को सार्वजनिक वाद-विवाद में हराया। किंतु ह्वेनसांग ने उसे माफ कर दिया। फलस्‍वरूप हारनेवाला आचार्य उनका शिष्‍य बन गया और नालंदा में छह वर्षों तक विद्यार्थी बनकर अध्‍ययन किया।
ह्वेनसांग के अनुसार, इस विद्या मंदिर में हजारों विद्वज्‍जन थे, जिनकी विद्वत्ता और योग्‍यता बहुत ही उच्‍चकोटि की थी। इन्‍हें सारे विश्‍व में आदर्श माना जाता था। विदेशी छात्र यहाँ अपनी शंकाओं का समाधान करने आते थे और गौरव तथा ख्‍याति प्राप्‍त करते थे।
युआन-च्‍वांग के अनुसार, विद्यार्थियों के पढ़ने और वाद-विवाद करने में दिन यों बीत जाता था कि दिन के घंटे उन्‍हें कम जान पड़ते थे। ह्वेनसांग ने महाविहार के प्रकांड विद्वान शिक्षक शीलभद्र से शिक्षा ग्रहण किया। शीलभद्र के आदेश पर ह्वेनसांग ने नालंदा महाविहार में एक वर्ष तक प्राध्‍यापक के रूप में पढ़ाया।
ह्वेनसांग के शब्‍दों में यदि लोग नालंदा के भ्रातृ समाज (छात्रवृंद) में सम्‍मलित रहने का मिथ्‍या प्रमाण भी जुटा लेते थे, तो उन्‍हें सभी स्‍थानों में उच्‍चकोटि के आवासीय विश्‍वविद्यालय में प्रवेश की सुविधा मिल जाती थी। नालंदा की एक उल्‍लेखनीय देन यह थी कि वहाँ विद्यार्थी एक-दूसरे के निर्माण में सहायता करते थे और इस प्रकार जीवन की सबसे आदर्श कला में यानी बुद्धि की दीप्‍ति से जाग्रत् एक विद्वज्‍जन समाज के निर्माण में पारस्‍परिक सहायता करते थे।
इत्‍सिंग के अनुसार, ख्‍यातिप्राप्‍त तथा प्रतिष्‍ठित विद्वान की यहाँ भीड़-सी लगी रहती थी और वे संभव तथा असंभव तथ्‍यों पर विचार किया करते थे और अंत में ज्ञानियों द्वारा अपने विचारों की श्रेष्‍ठता के संबंध में निश्‍चिंत होने के बाद अपने ज्ञान की दीप्‍ति से संसार में यश प्राप्‍त करते थे।
पाठ्यक्रम की समाप्‍ति पर दीक्षांत समारोह होता था, जिनमें विद्यार्थी की सामाजिक स्‍थिति और गुणों को देखते हुए उपाधियाँ दी जाती थीं। विनयपिटक के नियमानुसार विद्यार्थियों को धन-स्‍पर्श वर्जित था।
गुप्‍तकाल में स्‍थापित नालंदा विश्‍वविद्यालय लगभग 700 वर्षों तक सितारों की तरह जगमगाता रहा और ज्ञान महाकेंद्र के रूप में इसने संसार में प्रतिष्‍ठा प्राप्‍त की। मुसलमान आक्रमणकारी मुहम्‍मद बिन अख्‍तियार खिजली ने 1303 में आक्रमण किया और इस विद्या मंदिर को नष्‍ट-भ्रष्‍ट कर दिया। यहाँ के सभी भिक्षुओं को हमलावरों ने मौत के घाट उतार दिया और यहाँ के पुस्‍तकालयों को जलाकर भस्‍मसात कर दिया था। तुर्की इतिहासकार मिनहाज के शब्‍दों में यह विध्‍वंस इतना प्रलयकारी और भयावह हुआ कि इसके बाद फिर नालंदा महाविहार का विकास न हो सका। प्राचीन नालंदा विश्‍वविद्यालय के सैकड़ों साल बाद विख्‍यात पुरातत्त्ववेता सर कनिंघम ने इस प्राचीन विश्‍वविद्यालय को खोज निकाला। प्राचीन नालंदा विश्‍वविद्यालय की खुदाई 1870 में एम.एम. ब्रेडलेने ने शुरू की थी और उसी ने नालंदा विश्‍वविद्यालय को उक्‍त स्‍थान पर होने का संकेत दिया था। नालंदा के जीर्णोद्धार के लिए 1915 ई. में खुदाई का कार्य आरंभ हुआ। यह कार्य रॉयल सोसाइटी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड नामक संस्‍था की मदद से भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण की देखरेख में शुरू हुआ था जिसे बाद में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण ने अपने हाथ में लिया। खुदाई से प्राप्‍त चिह्नों से ज्ञात होता है कि नालंदा महाविहार का कम-से-कम सात बार पुनर्निर्माण या विस्‍तार हुआ होगा। अभी प्राचीन महाविहार के खंडहर संपूर्ण रूप से लगभग चौदह हजार हेक्‍टेयर भूमि में फैले हैं।
खुदाई के क्रम में अब तक नौ विहार प्रकाश में आए हैं जो दक्षिण से उत्तर की ओर एक पंक्‍ति में फैले हुए हैं। सभी एक ही प्रकार के समत्‍य हैं। इनके आँगन के चारों ओर कोष्‍ठक और बरामदे खुले हैं। सभी की दीवारों की चौड़ाई आठ फीट चौड़ी है। नालंदा के स्‍थापत्‍य के नमूने यानी पानी बहानेवाली नालियों, दीवारों में बनीं आलमारियाँ और ताखें, स्‍नानागार, शयनस्‍थल, अन्‍नागार, देव मंदिर, पूजा गृह, चिकित्‍सालय आदि आज भी दिख पड़ते हैं। इसे देखने से पता चलता है कि तत्‍कालीन वास्‍तुकला उत्‍कृष्‍टता के शिखर पर पहुँच चुकी थी। उत्‍खनन के फलस्‍वरूप 13 मठ प्रकाश में आए हैं। प्रत्‍येक मठ के कोने में एक कुआँ दिखाई पड़ता है, जिससे यह संकेत मिलता है कि पानी की समस्‍या को लोगों ने नजरअंदाज नहीं किया था। इस स्‍थल पर पुराविदों के सफल प्रयास से विश्‍वविद्यालय की रूपरेखा एक भवन प्रकाश में आए। विश्‍वविद्यालय लंबे क्षेत्र में विस्‍तृत तथा जिसकी लंबाई एक मील, चौड़ाई आधा मील दिखाई पड़ती है। विश्‍वविद्यालय के पारित स्‍तूप और मठ भी थे, जिन्‍हें योजनाबद्ध तरीके से बनाया गया था। छात्रों के हितों को ध्‍यान में रखते हुए एक बड़ा-सा हॉल था एवं 300 छोटे-छोटे कमरे भी दिखाई पड़ते हैं। इनमें व्‍याख्‍यानों का आयोजन किया जाता था। ये भवन कई मंजिलों के होते थे।
अन्‍य भ्रमण
नालंदा संग्रहालय—नालंदा संग्रहालय में गुप्‍तकाल और पालवंश के बहुत सारी बौद्ध मूर्तियाँ संग्रहित हैं। इस संग्रहालय में खंडहरों की खुदाई में पाए गए ताम्र शिलालेख, मिट्टी के बर्तन और जल गए चावलों के नमूने तक सुरक्षित रखे गए हैं।
नव नालंदा महाविहार—सन् 1951 में नव नालंदा महाविहार की स्‍थापना की गई, जिसमें बौद्ध दर्शन और पाली भाषा तथा साहित्‍य पर अनुसंधान कार्य आरंभ किया गया। इस महाविहार की आधारशिला तत्‍कालीन राष्‍ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 20 जनवरी, 1951 में रखी थी तथा 20 मार्च, 1956 को तत्‍कालीन उपराष्‍ट्रपति डॉ. राधाकृष्‍णन् ने इसके भवन का उद्घाटन किया। बाद में चीन, जापान, श्रीलंका और इंडोनेशिया ने भी इस संस्‍था के विकास में योगदान दिया। अब नव नालंदा विहार को विश्‍वविद्यालय के समकक्ष मान्‍यता प्रदान की गई है। केंद्र सरकार ने बिहार के नालंदा में स्‍थित नालंदा महाविहार को डीम्‍ड यूनिवर्सिटी के समकक्ष विश्‍वविद्यालय का दर्जा दिया है।
ह्वेनसांग स्‍मृति भवन— ह्वेनसांग (श्‍वेन त्‍सांड्) स्‍मृति भवन सातवीं शताब्‍दी में ह्वेनसांग की भारत यात्रा की स्‍मृति में बनाया गया है। यह भवन भारत-चीन की दो महान सभ्‍यताओं के बीच सांस्‍कृतिक आदान-प्रदान का प्रतीक है। ह्वेनसांग ने नालंदा महाविहार (नालंदा विश्‍वविद्यालय) में पाँच वर्षों तक शिक्षा ग्रहण की थी और एक वर्ष तक अध्‍यापन का कार्य किया था। चीन वापस जाते समय ह्वेनसांग अपने साथ कई पांडुलिपियाँ भी ले गए और इनका चीनी भाषा में अनुवाद किया। इससे न केवल चीन में बल्‍कि कोरिया और जापान में भी बौद्ध धर्म की मजबूत नींव रखी गई। राज्‍य के विश्‍वविख्‍यात नालंदा महाविहार में जगमगाता ह्वेनसांग स्‍मृति भवन अब देसी-विदेशी पर्यटकों के आकर्षण का मुख्‍य केंद्र बन गया है।
नालंदा विश्‍वविद्यालय के खंडहर से लगभग एक किलोमीटर दूर एकांत वातावरण के बीच अवस्‍थित ह्वेनसांग स्‍मृति भवन एकाग्रता को समेटे प्राचीन ज्ञान स्‍थली की याद ताजा कर देती है। राजकुमार ह्वेनसांग के सम्‍मान में बने स्‍मृति भवन को चीनी मंदिर का स्‍वरूप दिया गया है। भारतीय और चीनी कलाओं से सुसज्‍जित इस भवन की दीवारें, कक्ष में प्रवेश करते ही एक अद्भुत दृश्‍य प्रस्‍तुत करती हैं। लगभग 65 एकड़ में फैले इस स्‍थल के मनोरम दृश्‍य अत्‍यंत लुभावने हैं।
सन् 1960-61 में बने लगभग 108 फीट लंबे और 54 फीट चौड़े इस भवन का विस्‍तार कर इसे 400 फीट लंबा और 400 फीट चौड़ा बना दिया गया है। इस भवन की दीवारों पर अविस्‍मरणीय चीनी पेंटिंग्‍स, पोट्रेट एवं तस्‍वीरें लगाई गई हैं। भवन की दीवारों में ह्वेनसांग के संपूर्ण जीवन और उनके कार्यों का उल्‍लेख किया ‌गया है। इसके अलावा चीन सरकार द्वारा दिए उनके अमूल्‍य पुस्‍तकों को प्रदर्शित करने के लिए स्‍मृति भवन को विकसित किया गया है। स्‍मृति भवन में 12 फीट ऊँची और छह टन भारी ह्वेनसांग की मूर्ति स्‍थापित की गई है। उसके ठीक पीछे दीवार पर लकड़ी पर भव्‍य भित्तचित्र लगाया गया है, जिसमें ह्वेनसांग अपने प्रकांड विद्वान् शिक्षक शीलभद्र से शिक्षा ग्रहण करते दिखलाया गया है। भवन के अंदर बाईं ओर की दीवार पर नालंदा महाविहार के प्रकांड विद्वान शिक्षक शीलभद्र का पोट्रेट लगा है और दाईं ओर विश्‍वयात्री की वेशभूषा में ह्वेनसांग की तस्‍वीर।
स्‍मृति भवन परिसर के मुख्‍य द्वार के बाईं ओर एक विशाल स्‍मृति स्‍तंभ और दाईं ओर एक विशाल घंटा लगाया गया है। वहीं स्‍मृति भवन के प्रवेश मार्ग पर चीनी मंदिर की छत का स्‍वरूप लिया एक भव्‍य द्वार बनाया गया है। भवन के मुख्‍य द्वार पर ह्वेनसांग की पीठ पर रूकसैक के लिए आदमकद प्रतिमा उस वक्‍त के यात्रियों के रहन-सहन की याद दिलाती है।
उल्‍लेखनीय है कि 12 जनवरी, 1957 में भारत के तत्‍कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने चीन के तत्‍कालीन प्रधानमंत्री चाउ एन लाई से ह्वेनसांग के स्‍मृति चिह्न, ह्वेनसांग स्‍मृति भवन के निर्माण के लिए अनुदान और चीनी तृप्‍तिका (चीनी और बौद्ध साहित्‍य) तथा भवन का नक्‍शा चीन के प्रतिनिधि के रूप में धर्मगुरु दलाईलामा तथा पंचेन लामा की मौजूदगी में नालंदा के नव नालंदा महाविहार में आयोजित एक समारोह में ग्रहण किया था। ह्वेनसांग स्‍मृति भवन के निर्माण में नव नालंदा महाविहार के संस्‍थापक निदेशक भिक्षु जगदीश कश्‍यप का विशेष योगदान है।
कुंडलपुर—नालंदा खंडहर से लगभग दो किलोमीटर उत्तर कुंडलपुर (भगवान महावीर की जन्‍मस्‍थली) नामक स्‍थान है। यहाँ दिगंबर जैन धर्मावलंबियों द्वारा एक अति सुंदर नद्यवर्त महल का निर्माण कराया गया है जो एक दर्शनीय श्रद्धास्‍थल है। शिखर बंद इस मंदिर में भगवान महावीर की श्‍वेतवर्ण की साढ़े चार फीट अवगाहनवाली भव्‍य पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। शास्‍त्रों में वर्णन है कि तीर्थंकर की जन्‍मनगरी को उनके जन्‍म के पूर्व स्‍वर्ग से आकर स्‍वयं भगवान इंद्र ने व्‍यवस्‍थित किया था। मान्‍यता है कि कुंडलपुरवासियों को 24वें तीर्थंकर के नानवंश में अवतरण की बेला में नमो मंडल से वैभव और विभूति की विपुलावृष्‍टि हुई थी, जिससे सभी नगरवासी समृ‌द्ध एवं सुखी हो गए थे।
उदंतपुरी विश्‍वविद्यालय
यह विश्‍वविद्यालय भी नालंदा और विक्रमशिला विश्‍वविद्यालय की तरह विख्‍यात था, परंतु उदंतपुरी विश्‍वविद्यालय का उत्‍खनन कार्य नहीं होने के कारण आज भी धरती के गर्भ में दबा है, जिसके कारण बहुत ही कम लोग इस विश्‍वविद्यालय के इतिहास से परिचित हैं। अरक के लेखकों ने इसकी चर्चा अदबंद के नाम से की है, वहीं लामा तारानाथ ने इस उदंतपुरी महाविहार को ओडयंतपुरी महाविद्यालय कहा है। ऐसा कहा जाता है कि नालंदा विश्‍वविद्यालय जब अपने पतन की ओर अग्रसर हो रहा था, उसी समय इस विश्‍वविद्यालय की स्‍थापना की गई थी। इसकी स्‍थापना प्रथम पाल नरेश गोपाल ने सातवीं शताब्‍दी में की थी।
तिब्‍बती पांडुलिपियों से ऐसा ज्ञात होता है कि इस महाविहार के संचालन का भार भिक्षुसंघ के हाथ में था, किसी राजा के हाथ नहीं। संभवतः उदंतपुरी महाविहार की स्‍थापना में नालंदा महाविहार और विक्रमशिला महाविहार के बौद्ध संघों का मतैक्‍य नहीं था। संभवतया इस उदंतपुरी की ख्‍याति नालंदा और विक्रमशिला की अपेक्षा कुछ अधिक बढ़ गई थी। तभी तो मुहम्‍मद बिन बख्‍तियार खिजली का ध्‍यान इस महाविहार की ओर उत्‍कृष्‍ट हुआ और उसने सर्वप्रथम इसी का अपने आक्रमण का पहला निशाना बनाया। खिलजी ने 1197 ई. में सर्वप्रथम इसी की ओर आकृष्‍ट हुआ और अपने आक्रमण का पहला निशाना बनाया। उसने इस विश्‍वविद्यालय को चारों ओर से घेर लिया, जिससे भिक्षुगण काफी क्षुब्‍ध हुए और कोई उपाय न देखकर वे स्‍वयं ही संघर्ष के लिए आगे आ गए, जिसमें अधिकांश तो मौत के घाट उतार दिए गए, तो कुछ भिक्षु बंगाल तथा उड़ीसा की ओर भाग गए थे और अंत में इसमें आग लगवा दी। इस तरह विद्या का यह मंदिर सदा-सदा के लिए समाप्‍त हो गया। उल्‍लेखनीय है कि उदंतपुर को ही इन दिनों बिहारशरीफ के नाम से जाना जाता है। बिहारशरीफ के पास नालंदा विश्‍वविद्यालय होने के बावजूद उसी काल में उसी के नजदीक एक अन्‍य विश्‍वविद्यालय की स्‍थापना होना आश्‍चर्य की बात है। उदंतपुरी के प्रधान आचार्य जेतारि और अतिश के शिष्‍य थे। एक समय विद्या और आचार्यों की प्रसि‌द्धि के कारण इसका महत्त्व नालंदा से अधिक बढ़ गया था।
उदंतपुरी महाविहार के उन्‍नत तथा विकासशील बनाने में यहाँ के विद्यार्थियों तथा आचार्यों का विशेष योगदान रहा है। इनमें अतिश दीपंकर, ज्ञानश्रीमित्र, शांति-पा, योगा-पा, शांति रक्षित आदि के नाम उल्‍लेखनीय हैं। इस विश्‍वविद्यालय के प्रथम कुलपति प्रभाकर थे। मित्र योगी कुछ दिनों तक प्रधान आचार्य पद पर थे। तिब्‍बती पांडुलिपियों के अनुसार वहाँ के प्रसिद्ध राजा खरी स्‍त्रोन डसुत्‍सेन शिक्षा प्राप्‍त करने आए थे। शांतिरक्षित इस महाविहार के प्रथम शिष्‍य रहे हैं, जिनके द्वारा यहाँ के सांस्‍कृतिक वैभव को देश-विदेशों में ख्‍याति प्राप्‍त करने का श्रेय रहा। इस विश्‍वविद्यालय में देश-विदेश के लगभग एक हजार विद्यार्थी अध्‍ययन किया करते थे। नालंदा व विक्रमशिला विश्‍वविद्यालय की तरह देश के राजाओं तथा धनाढ्य लोगों द्वारा सहायता मिलती थी। फिर भी उदंतपुरी विश्‍वविद्यालय बौद्ध धर्म के माननेवाले तथा भिक्षुओं का मुख्‍य केंद्र था। तिब्‍बत में इनकी भूरि-‌भूरि प्रशंसा की जाती है। आज भी उनके कमंडल, खोपड़ी और अस्‍थियाँ वहाँ के संग्रहालय में सुरक्षित हैं। शांतिरक्षित लगभग 743 ई. में जब वे तिब्‍बत गए तो वहाँ पर उदंतपुरी महाविहार के समरूप ही एक बौद्ध विहार का निर्माण कराया, जिसे ‘साम्‍ये विहार’ के नाम से जाना जाता है। यहाँ भी एक बहुत बड़ा समृद्धशाली पुस्‍तकालय के संबंध में कहा जाता है कि जितना विशाल संग्रह यहाँ उपलब्‍ध था, उतना संग्रह विक्रमशिला विश्‍वविद्यालय में भी नहीं था।
बुकानन और कनिंघम ने आधुनिक बिहारशरीफ शहर जो कि नालंदा जाने के मार्ग में पड़ता है, वहाँ एक विशाल टीला का उल्‍लेख करते हैं। यहाँ के एक बौद्ध देवी की कांस्‍य की प्रतिमा प्राप्‍त हुई है। इस पर एक अभिलेख अंकित है जिसमें एणकठाकुट का नाम उल्‍लेखित है। यह उदंतपुरी का निवासी था। शायद इसी अभिलेख के आधार पर इस स्‍थान की पहचान उदंतपुरी विश्‍वविद्यालय से की गई है।
             पहुँचने का मार्ग
सड़क मार्ग—पटना से 95 किलोमीटर, राजगीर से 12 किलोमीटर, बोधगया से 90 किलोमीटर (गया होकर), पावापुरी से 26 किलोमीटर
रेलमार्ग—निकटवर्ती रेलवे स्‍टेशन राजगीर व नालंदा
हवाई मार्ग—पटना और गया हवाई अड्डा
कहाँ ठहरें—यहाँ ठहरने के लिए आपको शहर में होटल-रेस्‍ट मिलेगा। सरकारी रेस्‍ट हाऊस तथा बँगला भी है, जिसमें ठहरने के लिए दो-तीन दिन पहले आदेश लेना पड़ता है। इसके अलावा यहाँ एक यूथ होस्‍टल भी है। फिर भी राजगीर में ठहरना अच्‍छा होता है क्‍योंकि यहाँ खाने के लिए होटल नहीं है।
सामान्‍य जानकारी
नालंदा (जिला नालंदा)
क्षेत्रफल—2367 वर्ग किलोमीटर
चौहद्दी—उत्तर—पटना एवं नवादा
दक्षिण—गया एवं नवादा
पूर्व—मुंगेर
पश्‍चिम—जहानाबाद
नदी—फल्‍गू और मुहाने
तापमान—गर्मी—अधिकतम 48 सेंटीग्रेड—न्‍यूनतम 18 सेंटीग्रेड
जाड़ा—अधिकतम 28 सेंटीग्रेड—न्‍यूनतम 15 सेंटीग्रेड
वर्षा—120 सेंटीमीटर
उत्तर मौसम—नवंबर से फरवरी
एस.टी.डी. कोड—06112
(लेखक हिंदुस्‍तान, पटना संस्‍करण में बिजनेस पेज के प्रभारी व ‌बिहार पर्यटन सम्‍मान से सम्‍मानित हैं।)

Wednesday, August 1, 2012

राजस्थान में बौद्ध धर्म के पुरातात्विक स्थल .


राजस्‍थान की धरती के गर्भ में बौद्ध धर्म के जिन्‍दा-प्रमाण   --सत्‍यपाल बौद्ध
लाभ निकेतन भारत नगर
       वार्ड ने. 31, रतनगढ – 331022 (चूरू)
                                                                                                           मो. 9460024587, 8107616365
      एक समय था जब यह देश बहुसंख्‍यक बौद्धधर्मावलम्‍बी देश था। सम्‍पूर्ण भारत वर्ष में सदिया से-सदियों तक बौद्ध धर्म की खुशबू से चहुँ और त्रिशरण एवं पंचशील गुंजायमान हुआ करते थे। चक्रवर्ती सम्राट अशोक से लेकर हर्षवर्धन, कनिष्‍क, गुप्‍त शासक बुद्धगुप्‍त व नरसिंह गुप्‍त जैसे महाप्रतापों कई बौद्ध राजाओं ने भारत पर शासन किया है जिनके वंशों का एक लम्‍बा इतिहास भरा पडा है। अत: कहना न होगा हमारे पुरखे बौद्ध थे।
      इतिहास का विद्यार्थी जानता है कि सम्राट अशोक ने जन कल्‍याण हेतु लोक हित में बौद्ध धर्म के चौरासी हजार धम्‍मोपदेशों को भारत वर्ष मं चारों ओर विशाल, सांची के स्‍तूप सरिके चौरासी हजार बुद्ध विहार (मंदिर, मठ, स्‍तूप,चैत्‍य) बनवाये तथा चौरासी  हजार बुद्ध विहारों में हर एक में एक धम्‍मोपदेश को शिलालेख पर खुदवाकर स्‍थापित किया। विश्‍व धरोहर हैरत अंगेज कर देनेवाले कम्‍बोडिया के जंगलों में फैला अंगकोरवाट के प्राचीन बुद्ध मंदिर हों या  ओसामा बिन लादेन द्वारा अफगानिस्‍तान में तोडी गई बामियान के विशालकाय पहाडों को तराशकर बनाई गयी बुद्ध मूर्तियॉं। यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि बौद्ध धर्म कितनी दूर-दूर तक फैला हुआ था। समूचे एशिया को आप्‍लावित कर बौद्ध धर्म यूरोप तक जा पहँचा। अल-बेरूनी के अनुसार इस्‍लाम का उदय होने से पूर्व इराक, ईरान, अफगानिस्‍तान आदि देशों के लोग बौद्ध अनुयायी थे। ईसा मसीह स्‍वयं कश्‍मीर के एक बुद्ध विहार में तेरह वर्षों तक रहे, तभी तो ईसाई धर्म में बौद्धधर्म की गहरी छाप है। बारलम और जासाफत की कथा में बोधिस्‍तव का वृतान्‍त मिलता है। रूमानिया के प्रान्‍त मोलदावा से आर्यप्रज्ञापारमिता की पोथी के दो काले पन्‍ने मिले हैं। स्‍वीडन के हेलगोद्वीप में कमल पर पदमासन मुद्रा में बैठे बुद्ध मूर्ति मिली हैं। इंग्‍लैण्‍ड के सैन्‍ट लोग बौद्ध थे। इसी प्रकार रूस में भी बौद्ध धर्म के चिन्‍ह दुर्लभ नहीं है।
      तो ये थे ईसा पूर्व तीसरी शताब्‍दी में सम्राट अशोक द्वारा अपने जीवन काल में बनवाये गये चौरासी हजार बुद्ध विहार जिसे अपनी ज्ञान पिपासा शांत करने आए दार्शनिक,चीनी यात्री ह्रेनसांग ने स्‍वयं गिने, जिसके ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद हैं, किन्‍तु उसके बाद भी और छोटे-बडे बुद्ध विहारों का बनना सदियों तक अनवरत जारी रहा। ऐसे में गांव-बस्‍ती में बने बुद्ध विहारों को गिनना सम्‍भव  हो सकता था?  यह बौद्ध काल का ही गौरवशाली इतिहास रहा है, जब विश्‍व धर्म गुरू भारत को सोने की चिडिया कहा जाता था। खुशहाली  इतनी थी कि कहते हैं यहॉं दूध-दही की नदियॉं बहती थीं।जैसा कि मैगस्‍थनीज ने इंडिका में लिखा है कि स्‍नेह और विश्‍वास इतना था कि कहते हैं लोग अपने घरों में ताले तक नहीं लगाया करते थे। 
भगवान बुद्ध का महान उपदेश ‘’अनिच्‍चा च संरवारा’’ अर्थात क्षण-क्षण परिवर्तनशील है। समय परिवर्तन हुआ और विदेशी आक्रांताओं के साथ भारत के कुछेक सिर-फिरे लोगों के कुकृत्‍य से इन बुद्ध विहारेां को तोडा गया तो कुछेक का स्‍वरूप बदल दिया गया। भयंकर लूट-पाट हुई। शिक्षा के केन्‍द्र नालन्‍दा विश्‍वविद्यालय तक को आग के हवाले कर दिया गया। त्रिपिटक और भिक्षुआं द्वारा खोज कर लिखे गये ग्रंथों को जला दिया गया।भिक्षुओं की गर्दनें तक काट दी गयी। आम जनता में भय फैल गया। भिक्षु जान बचाकर भारत से भागे और इस प्रकार भिक्षुओं के अभाव में बौद्धधर्म भारतसे लुप्‍त प्राय: हो गया।
भारत पर कई बार विदेशी आक्रांताओं ने हमला किया। कुछेक ने लूट-पाट की और चले गये। किन्‍तु-विदेशी मुगलों ने तो यहां पांच सौ सालों तक शासन किया। मुगलों के बाद अंग्रेजों ने लगभग दो सौ सालों तक शासन किया। अंग्रेजों का नजरिया औरों से भिन्‍न था। अंग्रेज ऐतिहासिक महत्‍व की धरोहर को ज्‍यादा ही महत्‍व देते थे। ब्रिटिशकाल में ही हडप्‍पा और मोहनजोदडों से भारत की प्राचीन सभ्‍यता पहली बार दुनिया के सामने आयी। एक अंग्रेज टीफन्‍थर ने ही सर्वप्रथम सारनाथ (वाराणसी) में सम्राट अशोक द्वारा बनवाये गये बुद्धविहार से सिंह-स्‍तम्‍भ को खोजा। इसी सिंह-स्‍तम्‍भ को आज अशोक  स्‍तम्‍भ कहा जाता है, और उसमें बने धम्‍म-चक्‍क को अशोक चक्र कहते हैा। यही भगवान बुद्ध का धम्‍म-चक्‍क अथवा धर्म चक्र भारत के राष्‍ट्रीय ध्‍वज में शोभायमान है। इसरों के प्रोब पर अंकित राष्‍ट्र ध्‍वज के साथ, बौद्ध धर्म चॉंद पर जा पहुँचा है।
इस प्रकार अंग्रेजों की अन्‍वेषणशील सोच की वजह से यहींसे शुरू हो जाता है पूरे भारत में गह-जगह लूट-पाट कर जमींदोज कर दियेगये प्राचीन बुद्ध विहारों के अवशेष मिलना, जो आत तक निरन्‍तर जारी है। तो आइये हम जाने राजस्‍थान में मिले अब तक के प्राचीन बौद्ध कालीन अवशेष कहॉं-कहॉं प्राप्‍त हुए है।
बैराठ (जयपुर)  राजस्‍थान की राजधानी जयपुर के पास ही बैराठ है। बैराठ ही विराटनगर है। इसे भाब्रू भी कहते हैं। प्रचीन काल में यह क्षेत्र मत्‍स्‍य प्रदेश कहलाता था। कहते हैा यहां कभी सम्राट अशोक विपश्‍यना में रत् ध्‍यान साधना करते थे। यहॉं बीजक की पहाडियां पर सम्राट अशोक के समय के प्राचीन बुद्ध विहार के अवशेष मिले हैं। एक शिलालेख भी प्राप्‍त हुआ, जिसे भाब्रू अभिलेख कहते हैा। सम्राट अशेंक द्वारा स्‍थापित भाब्रू अभिलेख बौद्ध धर्म को समझने व इस क्षेत्र में इसकी उपस्थिति का स्‍पष्‍ट प्रमाण है। इसमें न केवल बुद्ध, धम्‍म और संघ के प्रति अपनी श्रद्धा का प्रदर्शन किया गया हैं वरन् भिक्षु, भिक्षुणी तथा उपासक-उपासिकाओ के अध्‍ययन एवं मनन के लिए कतिपय बौद्ध ग्रन्‍थों का उल्‍लेख भी करता है। यह लेख इस प्रकार हैं- मगध के प्रियदर्शी राजा संघ का अभिवादन करके यह कामना करते हैं कि वे स्‍वस्‍थ और निरापद रहें। हे! भदन्‍तगण जो कुछ भगवान बुद्ध ने कहा है वह सब अच्‍छा कहा है। परन्‍तु हे! भदन्‍तगण, यदि मैं सद्धम हो चिरस्‍थायी करने के लिए (बुद्ध)कह सकता हूँ तो मैं उसे कहना उचित समझता हूँ। हे! भदन्‍तगण ये धर्मग्रन्‍थ है नियसमुकस, अलियवसानि, अनगतिभ्‍यानि, मुनिगाथा,मोनेयसूत, उपतिस-पसिव, राहुलवाद जिसमें भगवान बुद्ध ने मिथ्‍याचारके संबंध में कहा है।हे! भदन्‍तगण, मैा इसलिए यह लेख उत्‍कीर्ण करवा रहा हूँ कि लोग मेरी इच्‍छा जान सकें।‘’
इधर उधर चारों ओर टूटे हुए मन्दिर के अवशेष आज भी बिखरे पडे हैा। एक सिंह स्‍तम्‍भ (अशोक स्‍तम्‍भ) भी मिला था, जिसका शीर्ष काटा गया था। वर्तमान में यह सिंह स्‍तम्‍भ कलकत्‍ता संग्रहालय मं सुरक्षित रखा गया है। बताया जाताहै यहां एक सोने की स्‍वर्ण-मंजूषाभी मिली थी, जिसमें तथागत भगवानबुद्ध की पवित्र अस्थियॉं सुरक्षित रखी हुइा थी। यह स्‍वर्ण-मंजूषाअब कहॉं है? कोई नहीं जानता।
साम्‍भर – जयपुर जिले का गॉंव साम्‍भर। यहॉं खारे पानी की झील है। यहां बडे पैमाने पर नमक का उत्‍पादन होता है। यहॉं आबादी क्षेत्र में एक मुस्लिम की जमीन है जिसमें पडे हुए पत्‍थरों को वह अपने पुरखों की कब्र बताया करता था। एक दिन जब उसने अपनी इस जमीन के चारदीवारी बनवाने के लिए नींव खुदवाई तो तराशे हुए पत्‍थरेां के टुकडे और बुद्ध प्रतिमाएं निकली, मूर्तियॉं देख पूरे साम्‍भर ग्राम में कोलाहल मच गया। साम्‍भर के हिन्‍दुओं ने इसे भगवान विष्‍णु का मन्दिर बताकर उस पर हिन्‍दुओं का हक जताकर प्रशासन में अर्जी लगा दी। चुकि जमीन गॉंव के मध्‍य में और आबादी क्षेत्र मे आती है, इसलिए इसका मूल्‍य समझा जा सकता है। कहा जाता है कि हिन्‍दू व मुसलमानों के विवाद के चलते यह मामला अदालत में लम्बित पडा है। इसलिए यह स्‍थल वैसा का वैसा ही पडा है और अवशेष बिखरे हुए आज भी पडे हैं।
 लालसोट (दौसा)) दौसा जिले का गॉंव लालसोट, यहॉं पर प्राचीन बौद्धकालीन अवशेष यत्र-तत्र बिखरे पडे हैं। प्राचीन भारतीय ऐतिहासिक विरासत को सुरक्षित रखना क्‍या सरकार का काम नहीं है?  
भण्‍डारेज (दौसा) गुर्जर बाहुल्‍य इस क्षेत्र में भण्‍डारेज गॉंव की पहाडियों पर भी प्राचीन अवशेष बिखरे पडे हैं।
रेढ (टॉक) यह ओंक जिले में स्थित है। यहॉं इतिहास पुरातत्‍व से जुडी बहुत सी सामग्री प्राप्‍त हुई है। इसी सामग्री में बौद्ध धर्म से जुडी कई प्रकार की सामग्री यहॉं प्राप्‍त हुई है। यहॉं स्‍वर्ण, रजत एवं मिट्टी की पंचमार्क मुद्रायें जो बौद्ध काल में प्रचलित थी प्राप्‍त हुई हा। कुछ भिक्षुआं के वेश में प्राप्‍त मूर्तियों के टुकडे मिले हैं। जिससे भी अनुमान लगता हैं यहॉं बौद्ध धर्म किसी समय अवस्थित था।
      झालावाड की गुफायें  विश्‍व प्रसिद्ध पर्यटन केंद्र अजन्‍ता, एलोरा व कन्‍हेरी की गुफाओं की तरह यहॉं झालावाड में भी प्राचीन बौद्ध गुफाएं विद्यमान है।
पुष्‍कर अजमेर के पास है पुष्‍कर टिला। यहॉं एक स्‍थान को बुढा पुष्‍कर कहा जाता है। यहॉं प्राचीन बौद्धकालीन बुद्ध विहार के अवशेष ि‍बखरे पडे हैं। प्रसिद्ध सांची-स्‍तूप (भोपाल) के प्रवेश द्वारा पर उकेरे गये अक्षरों से ज्ञात हुआ कि बुद्ध पुष्‍कर से चार बौद्ध भिक्षुओं व एक भिक्षुणी ने सांची स्‍तूप  के निर्माण में सहायतार्थ धन राशि दी व श्रम दान भी किया था। नि:सन्‍देह बुढा पुष्‍कर ही बुद्ध पुष्‍कर का अपभ्रंश है।
चित्‍तौडगढ प्रसिद्ध चित्‍तौडगढ का किला यहॉं पर भी प्राचीन बौद्धकालीन अवशेष बिखरे पडे हैं। इस स्‍थान पर बापा रावल ने 7वीं ई. में गुहिल राजवंश की नींव रखी थी। यह नींव मौर्य शासकों को पराजित कर रखी गयी थी। चित्‍तौड के किले की नींव भी चित्रांग मौर्य नामक शासक ने रखी थी उसी का विस्‍तार बापा ने करवाया था तो निश्चित रूप से यहॉं भी बौद्ध धर्म उन्‍नत अवस्‍था में था, क्‍योंकि मौर्यों का राज धर्म बौद्ध था। अत: प्रजा पर भी इसका असर पडना स्‍वाभाविक था, हो सकता है कि आगे चलकर बौद्ध धर्म के सम्‍बन्धित स्‍मारकों स्‍थानों का रूप परिवर्तन कर दिया गया हो। इतिहासकार कर्नल जेम्‍सटॉड ने चित्‍तौड से एक शिलालेख प्राप्‍त किया था। उसे मानमोरी शिलालेख कहा जाता है। यह लेख 712 इा. का था परंतु टॉड ने इंग्‍लैण्‍ड जाते समय इसे अनावश्‍यक समझते हुए समुद्र में फेंक दिया था। इस पर मौर्य शासकों व बौद्ध धर्म का उल्‍लेख था परंतु आज इस विषय मं कुछ भी तथ्‍यात्‍मक रूप से नहीं कहा जा सकताहै। यहॉं पर यदि पुरात्तत्‍व विभाग सर्वे करवाये तो आश्‍चर्यजनक तथ्‍य उजागर होने की सम्‍भावना है।
भीनमाल (जालौर) यह जालौर जिले में स्थितहै। यहॉं चीनी बौद्ध विद्वान ह्रनसांग हर्षवर्धन के काल में यहॉं आये थे तो अवश्‍य ही इस स्‍थान पर भी बौद्ध धर्म से सम्‍बन्धित दर्शनीय स्‍थल रहा होगा जिसे देखने वह यहॉं कंधार के रास्‍ते से आये थे। भीनमाल का वर्णन ह्रेनसांग द्वारा लिखित सीयूकी (मेरा भारत वृतांत) में मिलता है। अत: यहॉं पर यदि सर्वे करवाया जाए तो निश्चित रूप से इतिहास व पुरातत्‍व के लिए अति महत्‍वपूर्ण प्राचीन बौद्धकालीन अवशेष मिल सकते है।
मण्‍डोर (जोधपुर)  सरीलंका (श्रीलंका) के बौद्ध भिक्षु नन्‍दवर्धन बोधि ने जब मण्‍डोर का किला प्रथम बार देखा तो वे भावुक हो गये। उनके आश्‍चर्य का ठिकाना न रहा। उन्‍होंने दावे से कहा यह कोई किला नहीं था। यह तो चक्रवर्ती सम्राट अशोक द्वारा बनवाये गये चौरासी हजार बुद्ध विहारेां में से एक है। आज भी विशालकाय बुद्ध विहार के टूटे पत्‍थरों पर बौद्धकालीन कला-संस्‍कृति स्‍पष्‍ट देखी जा सकती है। यही नहीं सबसे ऊँचे खण्‍डर के पत्‍थरों पर भगवान बुद्ध की मूर्तियॉं उकेरी हुई आज भी विद्यमान है। पता नहीं क्‍यों इस मण्‍डोर बुद्ध मूर्तियों एवं अन्‍य सामान की सूची रजिस्‍टर में दर्ज गौराऊ निवासी श्री भागूराम डोडवाडिया जाट के पास रखी हुई हैा
खाटू नागौर जिले के डेंगाना के पास ग्राम खाटू है। यहॉं की पहाडियों में बौद्धकालीन अवशेष आज भी बिखरे है।
गौराऊ  नागौर जिले की तहसील जायल में ग्राम गौराऊ है। यहां 1987 में केशो पुत्र भैरजी जाट के खेत से प्राचीन बुद्ध विहार के अवशेष प्राप्‍त हुएहैं। यहॉं धातु की इक्‍कीस बुद्ध मूर्तियों के साथ झालर, कटोरदान इत्‍यादि के साथ मन्दिर के ऊपर गुम्‍बद (शिखर) पर लगने वाला शिखर, पूरा का पूरा सोने का प्राप्‍त हुआ था तथा पत्‍थरकी 3,3 व 31/2 फीट की तीन  मूर्तियॉं मिली जो आज भी गॉव में मौजूद है। इन तीनों पत्‍थर  की मूर्तियां को गॉंव के सहयोग से बनवाये गये नवीन बुद्ध विहार में स्‍थापित किया गया है। गॉंव में मिली इन सभी बुद्ध मूर्तियों एवं अन्‍य सामान की सूची रजिस्‍टर में दर्ज गौराऊ निवासी श्री भागूराम डोडवाडिया जाट के पास रखी हुई है।
लांडनूं नागौर जिले की तहसील है लाडनूं जो जैन विश्‍व भारती के कारण भी प्रसिद्ध है। यहॉं प्राचीन काल का बुद्ध विहार आज भी सुरक्षित है। ब्रिटिश काल में निकले इस बुद्धविहार में, लाल पत्‍थर की तीन बुद्ध प्रतिमायें इसी विहार मं सुरक्षित रखी हैं। वर्तमान में मन्दिर के गर्भ गृह में बुद्ध प्रतिमा के स्‍थान पर संगमरमर की बनी आधुनिक दो प्रतिमायें जैन तीर्थकर की स्‍थापित है। तभी तो आगन्‍तुक इसे बुद्ध विहार की जगह जैन मन्दिर समझने लगे हैं।मन्दिर के बाहर बडे अक्षरों में ‘’श्री दिगम्‍बर जैन मन्दिर, बडा लाडनूं’’ लिखा हुआ है।
स्‍यानण प्रसिद्ध सालासर बालाजी मन्दिर के पास ही एक गॉंव स्‍यानण है। यहॉं आलू की आकृति जैसे बडे-बडे विशालकाय पत्‍थर एक क ऊपर एक टिके हैं। जैसे मानो किसी ने क्रेन से रखें हों। कोई भी व्‍यक्ति इसे देखकर आश्‍चर्य चकित हुए बिना नहीं रह सकता। इन्‍हीं गोल-गोल पत्‍थरों के साथ ही पहाडी पर बना है एक मन्दिर जिसमें एक काली मॉं की फोटो लगी है, इसी कारण इसे काली मन्दिर कहते हैा। हकीकत में यह प्राचीन बुद्ध विहार है। न जाने किसने कब इस मन्दिर से बुद्ध मूर्ति को तोडकर काली मॉं की फोटो लगा दी। मन्दिर में ऊकेरी गयी बौद्धकालीन कलाकृतियॉं मन्दिर के प्राचीन इतिहास को बयान करती है। इस मन्दिर की एक विशेषता यह भी है कि मन्दिर में यदि मूर्ति रखी जाये तो उसका मुँह दक्षिण दिशा  में होगा और मन्दिर के ऊपर ही पहाडी पर मूर्ति के ठीक सामने लगा बोधिवृक्ष (पीपल का पेड)इसकी दूसरी विशेषता है। पहाडी पर बने मन्दिर के पास पहाडी में छोटी-छोटी प्राकृतिक गुफाएं हैं जिनमें टूटी मूतिर्यों के अवशेष बिखरे पडे हैं1 गुफा को उल्‍लुओं ने अपना बसेरा बना रखा है। विडम्‍बना देखें कभी शांति व अहिंसा के पर्याय इस बुद्ध विहार में आज हिंसा होती है। काली मॉं के नाम पर निरीह पशुओं की बली चढाई जाती हैं।
सांखू (राजगढ)  चूरू जिले क राजगढ तहसील में सांखू फोर्ट नामक ग्राम में आज से करीब वर्ष भर पूर्व एक राजपूत परिवार की जमीन मे निर्माण कार्य चल रहा था तभी अचानक किसी भवन की ऊपरी भाग जमीन की सतह पर निकला जब खुदाई हुई तथा इतिहास अध्‍ययन से जुडे लोगों ने इसका निरीक्षण किया तो इसे बौद्ध मठ प्रतीत होता बताया गया था।   
लधासर (रतनगढ) जिला चूरू की तहसील रतनगढ के पास में है एक गॉंव लधासर। हाल में यहॉं की रोही में पर्वतसिंह के खेत से प्राचीन बौद्धकालीन अवशेष मिले हैं।यहॉं से प्राप्‍त अवशेषों की तुलना हम पत्‍थरों पर की गई नक्‍काशी के आधार पर अजन्‍ता व एलोरा की गुफाओं के चित्रों से कर सकते है। इन गुफाओं की चित्रकारी व प्राप्‍त अवशेषों की चित्रकारी में बहुत सी समानताऍं नजर आती है। यहां जो पत्‍थर क अवशेष प्राप्‍त हुए है वह किसी बौद्ध स्‍तूप या मठ का ऊपरी तोरण द्वार था, जिसका किसी अज्ञात कारणवश विध्‍वंस किया गया था। उसी के अवशेष प्राप्‍त हुए पत्‍थर इतने विशाल है कि ये किसी दूसरे स्‍थान से लाकर रखे गये नहीं हो सकते। कला की तुलना हम बौद्धकालीन स्‍थापत्‍य व चित्रकला से कर सकते है। यहां सरकार की ओर से जयपुर से आये दो पुरातत्‍वविदों ने इनका निरीक्षण किया है। सरकार द्वारा मंजूरी मिलने पर यहॉं खुदाई का कार्य शुरू किया जायेगा। निश्‍चय ही यहॉं ऐतिहासिक दृष्टि से अति महत्‍वपूर्ण अवशेष मिलेंगे। जिससे रतनगढ को एक विशिष्‍ठ पहचान प्राप्‍त होगी परंतु जब उत्‍खनन होगा तो सदैव की भांति तथ्‍यों को तोड मरोडकर प्रस्‍तुत करने का भी प्रयास किया जायेगा ।
रतनगढ से ही प्राप्‍त एक शिला (प्रस्‍तर खण्‍ड) जो वर्तमान में बीकानेर संग्रहालय में सुरक्षित है जिस पर ऊकेरी गयी नृतक-गायन को देखने से बौद्धकालीन अजंता एलोरा की शिल्‍पकला का स्‍मरण हो आता है। कुछ समय पूर्व नृतक-गायन का ऐसा ही दूसरा और खण्डित प्रस्‍तर खण्‍ड जो लावारिस पडा मिला, जिसे नगर के समाधि स्‍थल शिवालय में रखा गया है। ये दोनों ही प्रस्‍तर-खण्‍ड किसी प्राचीन बुद्धविहार के अवशेष लगते है। दोनों प्रस्‍तर फलक रतनगढ में कहॉं, किस मन्दिर के है? कोई नहीं जानता। आशा की जा सकती है ये रहस्‍य कभी तो उजागर हो ही जायेगा।
मेरी जानकारी के अनुसार ये है प्रदेश की हमारी विरासत और बौद्ध धर्म के इतिहास के जिन्‍दा प्रमाण, वे ज्ञात, अल्‍पज्ञात संरक्षण से उपेक्षित प्राचीन बौद्धकालीन अवशेष जो अब तक राजस्‍थान में मिले है। किन्‍तु गुमनामी में, धरती के गर्भ में दफन न जाने और कितने हैं, जो छपे हुए हैं? जिनका प्रकट होना शेष है। क्‍या स्‍यानण के बुद्ध विहार की तरह और बुद्धविहार नहीं मिल सकते? जिनका स्‍वरूप भी बदला हुआ हो। क्‍या राजस्‍थान के ये अवशेष बयां नहीं करते?  कभी यहॉं बौद्ध आबादी थी। नि:संदेह हमारे पूर्वज बौद्ध थे। वरना कया कारणहै? हमारे तीज-त्‍यौंहार, रीति-रिवाज, परम्‍पराओं एवे जीवनशैली में बौद्ध संस्‍कृति की झलक स्‍पष्‍ट दिखाई देती है। स्‍मरण रहे, बुद्ध की शिक्षाये प्राचीन है, प्राकृतिक सत्‍य, शाश्‍वत, सनातन है, तभी तो गौतम बुद्ध ने घोषित किया एस धम्‍मो सनन्‍तनो अर्थात धम्‍म ही सनातन है और इस प्रकार केवल बुद्धधम्‍म को ही सनातन-धर्म का गौरव प्राप्‍त है। यद्यपि वर्तमान भारतीय संस्‍कृति में विदेशी घालमेल हो चुका है। किन्‍तु जिन्‍हें विशुद्ध प्राचीन भारतीय श्रमण संस्‍कृति का ज्ञान है, वे बखुबी भारतीय जनमानस में बौद्ध संस्‍कारों को पहचानते हैं।
जहॉ प्राचीन बौद्धकाल मे कुछ भिक्षु एक स्‍थान पर रहकर विपश्‍यना में रत, ध्‍यान साधना में लीन रहते थे तो कई भिक्षु घुमक्‍कड प्रवृत्ति के होते थे। जो धम्‍म के प्रचार-प्रसार में दुर्गम से दुर्गम स्‍थानों में जाने से भी नहीं डरते थे। ऐसे में प्राकृतिक सौन्‍दर्य से अलंकृत कोई भी स्‍थान जेसे नदी,झील, झरना,पहाड इत्‍यादि पर भिक्षुओं ने पडाव न डाला हो ,तो ही नहीं सकता। जिस स्‍थान पर भिक्षुगण रहते वहॉंु बुद्ध विहार का निर्माण अवश्‍य करते थे। ऐसे में राजस्‍थान का माउंट आबू हो या झीलों की नगरी उदयपुर, कोलायत हो या लोहार्गल, ये स्‍थान भिक्षुओं से छूट जाने का सवाल ही नहीं होता। यहॉं पर यदि सर्वे हो तो निश्चित रूप से यहॉं बौद्धकालीन अवशेष प्राप्‍त होंगे।
भवतु सब्‍ब मंगल।

सत्‍यपाल बौद्ध
लाभ निकेतन भारत नगर
वार्ड ने. 31, रतनगढ – 331022 (चूरू)
मो. 9460024587, 8107616365
  साभार टंकण:-  श्री फबाद अहमद, कार्यालय सहायक,
डॉ. भदन्त आनन्द कौसल्यायन बौद्ध अध्ययन केन्द्र
    महात्मा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा