नालंदा विश्वविद्यालय, जहाँ ज्ञान प्राप्त किए बिना शिक्षा अधूरी मानी जाती थी---सुबोध कुमार नंदन |
नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना सम्राट अशोक ने बौद्ध विहार के रूप में करवाई थी। एक लंबे समय तक यहाँ बौद्ध विषयों का अध्ययन-अध्यापन चलता रहा। विश्वविद्यालय के रूप में इसका अभ्युदय गुप्त शासक कुमार गुप्त के शासन काल में हुआ। कुमार गुप्त (414-455) के पश्चात् अन्य गुप्तवंशीय सम्राटों (तथागत गुप्त नरसिंह गुप्त एवं बालादित्य) ने भी इसके विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया और यहाँ एक-एक विहार का निर्माण करवाया। लगभग 11वीं शताब्दी तक हिंदू तथा बौद्ध राजाओं ने विहारों के निर्माण की यह परंपरा कायम रखी। परिणामस्वरूप शिक्षा और ज्ञान के केंद्र के रूप में नालंदा की ख्याति अंतरराष्ट्रीय हो गई। ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं कि तथागत बुद्ध के जीवन काल में भी नालंदा एक सांस्कृतिक केंद्र था, किंतु उनके समय में विश्वविद्यालय की स्थापना नहीं हुई थी। नालंदा विश्वविद्यालय उदारता के लिए प्रसिद्ध था। इस विश्वविद्यालय की स्थापना कब और कैसे हुई, उसका ठीक-ठाक पता नहीं, परंतु यह एक बहुत बड़ा अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय था और हर्ष के युग में यह अपने चरमोत्कर्ष पर था। प्रसिद्ध इतिहासकार लामा तारानाथ के अनुसार बुद्ध के शिष्य सारिपुत्र की जन्मभूमि होने से नालंदा विशेष आकर्षण का केंद्र बना। नालंदा विश्वविद्यालय की प्रसिद्धि का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इसकी तुलना मध्ययुग में फ्रांस के क्लूंनी और वलेयरबॉक्स से की जाती है। अनेक चीनी विद्वान इसका यश सुनकर यहाँ अध्ययन के लिए आए और स्वदेश लौटकर उन्होंने नालंदा विश्वविद्यालय की शिक्षा प्रणाली की भूरि-भूरि प्रशंसा की। हर्ष के शासन काल में प्रसिद्ध चीनीयात्री ह्वेनसांग भी अध्ययन करने नालंदा आया था। इस शृंखला में इत्सिंग अंतिम था जो 673 ई. में यहाँ पहुँचा। नालंदा संस्कृत शब्द नालम् + दा से बना है। संस्कृत में नालम का अर्थ कमल होता है। कमल ज्ञान का प्रतीक है। नालम् + दा यानी कमल देनेवाली, ज्ञान देनेवाली। कालक्रम से यहाँ महाविहार की स्थापना के बाद इसका नाम नालंदा महाविहार रखा गया। नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति के पद पर आसीन होने की एकमात्र कसौटी थी—विद्वत्ता में सर्वोपरि होना। उम्र या शिक्षण अनुभव के आधार पर इनकी नियुक्ति नहीं होती थी। इस विश्वविद्यालय के पहले कुलपति थे नागार्जुन, जो अपने समय के सर्वश्रेष्ठ महायानी दार्शनिक थे। उनकी ख्याति प्रसिद्ध रसायनविद् के रूप में दूर-दूर तक फैली हुई थी। उस समय विश्वविद्यालय के प्रधानाचार्य उद्भट विद्वान शीलभद्र थे। उन्हें सोलह भाषाओं का ज्ञान था और वे अनेक विधाओं के पारंगत आचार्य थे। यहाँ के अन्य प्रमुख कुलपतियों में आर्यवेद, असंग, वसुबंधु, धर्मपाल, राहुल, शीलभद्र और चंद्रपाल, प्रभाकर मित्र, अश्वघोष, पद्मसंभव के नाम उल्लेखनीय हैं। युवानच्वांग ने लिखा है कि नालंदा के सहस्र विद्वान आचार्यों में से कई ऐसे थे जो सूत्र और शास्त्र जानते थे। यहाँ हस्तकौशल की शिक्षा का भी सुप्रबंध था। यहाँ सौ ऐसी वेदियाँ थीं, जहाँ से शिक्षक व्याख्यान दिया करते थे। विश्वविद्यालय के प्रबंधक का नियामक महास्थाविर होता था, जिसके सहायतार्थ दो परिषदें रहती थीं। नालंदा विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए बड़ी भीड़ होती थी, न केवल भारत से अपितु विदेशों से भी विद्यार्थी ज्ञान प्राप्ति के लिए यहाँ आते थे। फाहियान, ह्वेनसांग व इत्सिंग के अतिरिक्त चीन, कोरिया, तिब्बत और मध्य एशिया से नालंदा आनेवाले विद्यार्थियों की एक लंबी तालिका दिखाई पड़ती है। यहाँ पर विद्यार्थी ज्ञान प्राप्त करते ही थे, इसके साथ ही यहाँ के पुस्तकालयों में सुलभ महत्त्वपूर्ण बौद्ध ग्रंथों की नकल भी कर लेते थे। प्रवेश के नियम कठिन थे। विश्वविद्यालय में प्रवेश-द्वार पर बैठा द्वार-पंडित विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए इच्छुक छात्रों की परीक्षा लेता था। जो छात्र उसके द्वारा ली गई परीक्षा में पास हो जाते थे, उन्हें विश्वविद्यालय में प्रवेश मिल जाता था। शेष को अपने घर लौटना पड़ता था। प्रवेश परीक्षा अत्यंत कठिन होती थी, प्रवेश के लिए आए हुए छात्रों में से केवल 10 फीसदी छात्र ही सफल हो पाते थे। हजारों किलोमीटर दूर की कष्टदायक पदयात्रा कर नालंदा में पढ़ने के लिए प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग, युवान च्वांग, या-कि बहुवैनन, चुवानिह, डिछ-निह, आर्यवर्मन, हाइनीज, फाहियान, इत्सिंग आदि अनेक विद्यार्थी, चीन, जापान, कोरिया, तिब्बत और तोखरा से नालंदा में अध्ययनार्थ आए। नालंदा में विद्यार्थियों की संख्या कितनी रही होगी, इस विषय पर मतांतर है। इत्सिंग के अनुसार यह संख्या तीन हजार के लगभग थी जबकि ह्वेनसांग दस हजार छात्रों की चर्चा करता है। फिर भी एक निश्चित मत के अनुसार यह तो कहा ही जा सकता है कि हर्ष के समय में छात्रों की सख्या पाँच हजार के लगभग थी। यहाँ अध्ययन के लिए दो प्रकार के छात्र होते थे। एक तो वे, जो विद्याध्ययन के बाद बौद्ध भिक्षुक बनकर संघ में प्रवेश करते थे। दूसरे वे विद्यार्थी, जो विद्याध्ययन के बाद सांसारिक जीवन में जाते थे। ऐसे विद्यार्थी ब्रह्मचारी या मानव कहलाते थे, जो लोग भिक्षुक बनने के इच्छुक न थे लेकिन यहाँ अध्ययन करना चाहते थे। उन्हें अपना भोजन व्यय स्वयं उठाना पड़ता था या फिर विश्वविद्यालय के लिए शारीरिक श्रम करना होता था। नालंदा विश्वविद्यालय के अधिकांश विद्यार्थी काषाय वस्त्रधारी भिक्षु होते थे, जिनके रहने के लिए मठ बने थे। विश्वविद्यालय के कार्यक्रमों का नियमन कर्मदान नामक अधिकारी करता था। वही यह निश्चित करता था कि किस विद्यार्थी को क्या-क्या काम करना है। फाहियान ने लिखा है कि प्रतिदिन विश्वविद्यालय का कार्यक्रम घाटिका की सहायता से तैयार किया जाता था। घंटे की आवाज पर शयन, जागरण, भोजन, अध्ययन, पूजा आराधना आदि होते थे। संघाराम की एक-एक कोठरी में एक विद्यार्थी के रहने का प्रबंध था, जिसमें पत्थर की पट्टियों का शयनासन बना हुआ था। सभा तथा सामूहिक गोष्ठी के लिए अलग-अलग प्रशस्त मंडप थे, जिनमें 2000 भिक्षु एक साथ बैठ सकते थे। विश्वविद्यालय की व्यवस्था अनुदान में प्राप्त हुए दो सौ गाँवों से चलती थी। विद्यार्थियों को निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी। रहने, खाने एवं कपड़े की व्यवस्था स्वयं विश्वविद्यालय करता था। नालंदा में भिक्षुओं के अतिरिक्त कुछ अन्य लोग भी शिक्षा प्राप्त करने आते थे। यहाँ शिक्षा प्राप्त करनेवाले विद्यार्थियों में हिंदू छात्रों की संख्या ज्यादा रही होगी, तभी तो हिंदू शासक उस विश्वविद्यालय के उत्थान में अत्यंत सक्रिय दिखाई पड़ते थे। विद्यार्थियों को सात्विक एवं पौष्टिक भोजन मिलता था। भोजन इस प्रकार था—प्रातः चावल का पानी, दोपहर में चावल, मक्खन, दूध, फल, घी और मीठे तरबूज और शाम को हल्का भोजन। विश्वविद्यालय की अपनी मुद्रा थी, जिस पर श्री नालंदा महाविहार आर्य भिक्षुसंघस्य लेख उत्कीर्ण था। उससे संबद्धा जो विहार या विद्यालय थे, उनकी अलग-अलग मुद्राएँ थीं। चीनीयात्री इत्सिंग भी नालंदा आया था। उसने नालंदा में रहकर शिक्षा और विशेषज्ञता प्राप्त की थी। उसने नालंदा विश्वविद्यालय में स्थित प्रमुख पुस्तकालयों का विशेष रूप से वर्णन किया है। तिब्बती स्रोतों से पता चलता है कि नालंदा के ग्रंथालयों में हस्तलिखित ग्रंथों की कितनी विशाल संपदा थी। लामा तारानाथ और 18वीं शती के अन्य तिब्बती लेखक जिन्होंने बौद्ध धर्म के इतिहास लिखे हैं, इस संपदा के बारे में लिखते हैं कि विश्वविद्यालय के अहाते का बहुत बड़ा घेरा इन ग्रंथालयों के लिए अलग से रखा गया था और उस पर बड़ी-बड़ी, कई मंजिलोंवाली इमारतें थीं। उनमें से तीन के सुंदर नाम थे। रत्नसागर, रत्नोदधि और रत्नरंजक। इनमें सबसे बड़ा पुस्तकालय रत्नोदधि था, जिसका विस्तार नौ खंडों में था। उन खंडों में बहुमूल्य ग्रंथ और पांडुलिपियाँ सिलसिलेवार रखी हुई थीं। पुस्तकाध्यक्ष कोई वरिष्ठ प्राचार्य होता था। इन पुस्तकालयों में पांडुलिपियाँ तथा प्रतिलिपियाँ तैयार करने में अनेक भिक्षु और छात्र कार्यरत रहते थे। ह्वेनसांग ने नालंदा में रहकर करीब सात सौ ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ तैयार कीं और इन्हें बहुमूल्य धरोहर मानकर अपने देश चीन ले गया। उसी परंपरा में इत्सिंग ने भी प्रतिलिपि लेखन का कार्य किया और वैदिक तथा बौद्ध साहित्य के चार सौ ग्रंथ की प्रतियाँ सहेजकर चीन ले गया। नालंदा के कई हस्तलिखित ग्रंथ कैंब्रिज ऑफ लंदन पुस्तकालय में प्राप्त हुए हैं। 11-12वीं शताब्दी में नालंदा में महायान बौद्ध धर्म के विख्यात भष्ट्रसाहसिका प्रज्ञापारामति नामक शास्त्र गंथ की पोथी थी। उसकी प्रतियाँ इस समय नेपाल तथा लंदन की रायल एशियाटिक सोसाइटी और ऑक्सफोर्ड की बटालियन लाइब्रेरी में सुरक्षित हैं। ह्वेनसांग के अनुसार नालंदा में विशालकाय विश्वविद्यालय परिसर था, जिसमें संघाराम थे। सभी संघाराम एक ऊँची दीवारों से घिरे थे। इनके मध्य में विद्यापीठ स्थित थी। ऊँची दीवारों से सटे आठ आयताकार प्रकोष्ठ थे, जिनमें कक्षाएँ लगती थीं और आचार्यों के भाषण होते थे। दूसरी ओर कई वेधशालाएँ और कार्यशालाओं के भवन थे, जिनमें तरह-तरह के यंत्र लगे थे। उनसे जलवायु के अलावा ग्रह-नक्षत्रों की जानकारी प्राप्त की जाती थी। विहार के अलग चारमंजिला छात्रावास का भवन था, जिसमें पाँच हजार से अधिक छात्रों के निवास की व्यवस्था थी। संघारामों में अध्ययन करनेवाले भिक्षुओं की निम्न श्रेणियाँ थीं—श्रमनेर (निम्नतम श्रेणी), दहर (लघु मिक्षु), स्याविर, उपाध्याय और बहुश्रुत (श्रेष्ठतम श्रेणी)। विहार का कार्यालय आठ घंटे का होता था। प्रातः और अपराह्न में चार घंटे काम करना पड़ता था। विद्यार्थियों की दिनचर्या सुबह चार बजे से शुरू हो जाती थी। नालंदा में पढ़नेवाले विदेशी विद्यार्थियों को भारतीय परिवेश में रहना पड़ता था। उनका नामकरण भी भारतीय संस्कार के अनुसार किया जाता था। नालंदा में अध्ययनरत रहते समय उनका विदेशी नाम हट जाया करता था। उदाहरण के तौर पर, शर्मन-ह्यून-चिन (प्रकाशभांति), वान-होंग यौब्दी (श्रीदेव), तोफांग (चंद्रदेव)। नालंदा में दो प्रकार के पाठ्यक्रम थे—एक प्रारंभिक शिक्षा और दूसरा उच्च शिक्षा। प्रारंभिक शिक्षा को पूरा करके ही उच्च शिक्षा की पात्रता प्राप्त हो सकती थी। प्रारंभिक शिक्षा के लिए न्यूनतम आयु छह वर्ष और अधिकतम आठ वर्ष थी। प्रारंभिक पाठ्यपुस्तक का नाम सिद्धिरस्तु था, जिसमें वर्णमाला के 49 अक्षर होते थे। दूसरी पुस्तक जिसकी शुरुआत 8 वर्ष की अवस्था में होती थी, इनमें पाणिनि का व्याकरण होता था। इसके बाद धातु और कशिकावृत्ति का अध्ययन होता था। इत्सिंग के अनुसार—तरुण विद्यार्थी हेतु विद्या और अभिधम कोश सीखते थे। न्याय द्वार तर्कशास्त्र सीखने से उनकी अनुमान शक्ति विकसित होती थी और जातक माला पढ़ने से उनकी कल्पना और विचार-शक्ति बढ़ती थी। भिक्षु केवल सब विनय सीखते थे, बल्कि समस्त सूत्रों एवं शास्त्रों का भी अनुसंधान करते थे। नालंदा में पाँच विषयों की अनिवार्य पढ़ाई होती थी, जिसमें व्याकरण, शब्द विद्या, शिल्प शास्त्र विद्या, चिकित्सा विद्या हेतु विद्या (लॉजिक) तथा अध्यात्म विद्या प्रमुख थी। नालंदा में व्याख्यान, प्रवचन, वाद-विवाद और विमर्श के माध्यम से शिक्षा दी जाती थी। शिक्षा के विषय थे बौद्ध धर्म महायान, वज्रयान, सहजयान आदि संप्रदायों के धार्मिक साहित्य, तंत्र व ज्योतिष। इनके अलावा दर्शन, साहित्य, व्याकरण और कला की शिक्षा की भी व्यवस्था थी। चिकित्सा संबंधी शिक्षा अनिवार्य थी। युआन च्वांग की जो जीवनी हुई-ली ने लिखा है, उसके अनुसार नालंदा में पढ़ाए जानेवाले विषयों का वर्णन दिया गया है। उसने लिखा है कि 18 पंथों के ग्रंथ पढ़ाए जाते थे, जिनमें वेद-वेदांग थे, हेतुविद्या, शब्द विद्या, चिकित्साविद्या, अर्थर्ववेद या मंत्रविद्या, संख्या आदि विद्याएँ थीं, साथ ही वे अन्य फुटकर ग्रंथों का भी सूक्ष्म अध्ययन करते थे। एक हजार व्यक्ति वहाँ ऐसे थे जो बीस सूत्र ग्रंथ और शास्त्र समझते थे। 500 ऐसे अध्यापक थे, जो ऐसे तीस ग्रंथ सिखा सकते थे और कदाचित दस ऐसे थे, जो पचास ग्रंथ समझ सकते थे। अकेले शीलभद्र ऐसे थे, जिन्होंने सारे ग्रंथ पूरी तरह पढ़े थे और सब ग्रंथों को समझा था। इत्सिंग के अनुसार, विद्यार्थी के अध्ययन का एक मुख्य अनिवार्य विषय था संस्कृत व्याकरण। वे लिखते हैं कि पुराने अनुवादक संस्कृत भाषा के नियम हमें बताते...अब मुझे पूरा विश्वास है कि संस्कृत व्याकरण में संपूर्ण अध्ययन से इस अनुवाद में जो भी कठिनाई आएगी, दूरी हो जाएगी। नालंदा विश्वविद्यालय में आमतौर पर छात्र दस वर्ष के लिए भरती किए जाते थे। बौद्ध भिक्षु बनने के लिए छात्र 20 वर्षों तक विद्यालय में रह सकते थे। शोध करनेवाले छात्र इससे अधिक समय तक नालंदा में रह सकते थे। ह्वेनसांग लिखित भारत यात्रा के विवरण गजेटियर स्वरूप में है। छाड़ राजवंश से पश्चिम की यात्रा में उन्होंने भारत के अनेक स्थानों का वर्णन किए हैं। इस पुस्तक में नालंदा का विस्तार से वर्णन है। ह्वेनसांग ने महाविहार में होनेवाले वाद-विवाद की प्रक्रिया एवं उसमें सफलता के महत्त्व का उल्लेख किया है। ह्वेनसांग ने लिखा है कि एक बार लोकात्य समुदाय के एक आचार्य ने चालीस सिद्धांत लिखे और नालंदा महाविहार के विशाल द्वार पर सूचना लटका दिया। सूचना में था कि यदि कोई व्यक्ति इन सिद्धांतों को गलत सिद्ध कर दे तो उसकी विजय उपलक्ष्य में मैं अपना सिर दूँगा। ह्वेनसांग ने उस चुनौती को स्वीकार कर उस आचार्य को सार्वजनिक वाद-विवाद में हराया। किंतु ह्वेनसांग ने उसे माफ कर दिया। फलस्वरूप हारनेवाला आचार्य उनका शिष्य बन गया और नालंदा में छह वर्षों तक विद्यार्थी बनकर अध्ययन किया। ह्वेनसांग के अनुसार, इस विद्या मंदिर में हजारों विद्वज्जन थे, जिनकी विद्वत्ता और योग्यता बहुत ही उच्चकोटि की थी। इन्हें सारे विश्व में आदर्श माना जाता था। विदेशी छात्र यहाँ अपनी शंकाओं का समाधान करने आते थे और गौरव तथा ख्याति प्राप्त करते थे। युआन-च्वांग के अनुसार, विद्यार्थियों के पढ़ने और वाद-विवाद करने में दिन यों बीत जाता था कि दिन के घंटे उन्हें कम जान पड़ते थे। ह्वेनसांग ने महाविहार के प्रकांड विद्वान शिक्षक शीलभद्र से शिक्षा ग्रहण किया। शीलभद्र के आदेश पर ह्वेनसांग ने नालंदा महाविहार में एक वर्ष तक प्राध्यापक के रूप में पढ़ाया। ह्वेनसांग के शब्दों में यदि लोग नालंदा के भ्रातृ समाज (छात्रवृंद) में सम्मलित रहने का मिथ्या प्रमाण भी जुटा लेते थे, तो उन्हें सभी स्थानों में उच्चकोटि के आवासीय विश्वविद्यालय में प्रवेश की सुविधा मिल जाती थी। नालंदा की एक उल्लेखनीय देन यह थी कि वहाँ विद्यार्थी एक-दूसरे के निर्माण में सहायता करते थे और इस प्रकार जीवन की सबसे आदर्श कला में यानी बुद्धि की दीप्ति से जाग्रत् एक विद्वज्जन समाज के निर्माण में पारस्परिक सहायता करते थे। इत्सिंग के अनुसार, ख्यातिप्राप्त तथा प्रतिष्ठित विद्वान की यहाँ भीड़-सी लगी रहती थी और वे संभव तथा असंभव तथ्यों पर विचार किया करते थे और अंत में ज्ञानियों द्वारा अपने विचारों की श्रेष्ठता के संबंध में निश्चिंत होने के बाद अपने ज्ञान की दीप्ति से संसार में यश प्राप्त करते थे। पाठ्यक्रम की समाप्ति पर दीक्षांत समारोह होता था, जिनमें विद्यार्थी की सामाजिक स्थिति और गुणों को देखते हुए उपाधियाँ दी जाती थीं। विनयपिटक के नियमानुसार विद्यार्थियों को धन-स्पर्श वर्जित था। गुप्तकाल में स्थापित नालंदा विश्वविद्यालय लगभग 700 वर्षों तक सितारों की तरह जगमगाता रहा और ज्ञान महाकेंद्र के रूप में इसने संसार में प्रतिष्ठा प्राप्त की। मुसलमान आक्रमणकारी मुहम्मद बिन अख्तियार खिजली ने 1303 में आक्रमण किया और इस विद्या मंदिर को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। यहाँ के सभी भिक्षुओं को हमलावरों ने मौत के घाट उतार दिया और यहाँ के पुस्तकालयों को जलाकर भस्मसात कर दिया था। तुर्की इतिहासकार मिनहाज के शब्दों में यह विध्वंस इतना प्रलयकारी और भयावह हुआ कि इसके बाद फिर नालंदा महाविहार का विकास न हो सका। प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के सैकड़ों साल बाद विख्यात पुरातत्त्ववेता सर कनिंघम ने इस प्राचीन विश्वविद्यालय को खोज निकाला। प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय की खुदाई 1870 में एम.एम. ब्रेडलेने ने शुरू की थी और उसी ने नालंदा विश्वविद्यालय को उक्त स्थान पर होने का संकेत दिया था। नालंदा के जीर्णोद्धार के लिए 1915 ई. में खुदाई का कार्य आरंभ हुआ। यह कार्य रॉयल सोसाइटी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड नामक संस्था की मदद से भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण की देखरेख में शुरू हुआ था जिसे बाद में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण ने अपने हाथ में लिया। खुदाई से प्राप्त चिह्नों से ज्ञात होता है कि नालंदा महाविहार का कम-से-कम सात बार पुनर्निर्माण या विस्तार हुआ होगा। अभी प्राचीन महाविहार के खंडहर संपूर्ण रूप से लगभग चौदह हजार हेक्टेयर भूमि में फैले हैं। खुदाई के क्रम में अब तक नौ विहार प्रकाश में आए हैं जो दक्षिण से उत्तर की ओर एक पंक्ति में फैले हुए हैं। सभी एक ही प्रकार के समत्य हैं। इनके आँगन के चारों ओर कोष्ठक और बरामदे खुले हैं। सभी की दीवारों की चौड़ाई आठ फीट चौड़ी है। नालंदा के स्थापत्य के नमूने यानी पानी बहानेवाली नालियों, दीवारों में बनीं आलमारियाँ और ताखें, स्नानागार, शयनस्थल, अन्नागार, देव मंदिर, पूजा गृह, चिकित्सालय आदि आज भी दिख पड़ते हैं। इसे देखने से पता चलता है कि तत्कालीन वास्तुकला उत्कृष्टता के शिखर पर पहुँच चुकी थी। उत्खनन के फलस्वरूप 13 मठ प्रकाश में आए हैं। प्रत्येक मठ के कोने में एक कुआँ दिखाई पड़ता है, जिससे यह संकेत मिलता है कि पानी की समस्या को लोगों ने नजरअंदाज नहीं किया था। इस स्थल पर पुराविदों के सफल प्रयास से विश्वविद्यालय की रूपरेखा एक भवन प्रकाश में आए। विश्वविद्यालय लंबे क्षेत्र में विस्तृत तथा जिसकी लंबाई एक मील, चौड़ाई आधा मील दिखाई पड़ती है। विश्वविद्यालय के पारित स्तूप और मठ भी थे, जिन्हें योजनाबद्ध तरीके से बनाया गया था। छात्रों के हितों को ध्यान में रखते हुए एक बड़ा-सा हॉल था एवं 300 छोटे-छोटे कमरे भी दिखाई पड़ते हैं। इनमें व्याख्यानों का आयोजन किया जाता था। ये भवन कई मंजिलों के होते थे। अन्य भ्रमण नालंदा संग्रहालय—नालंदा संग्रहालय में गुप्तकाल और पालवंश के बहुत सारी बौद्ध मूर्तियाँ संग्रहित हैं। इस संग्रहालय में खंडहरों की खुदाई में पाए गए ताम्र शिलालेख, मिट्टी के बर्तन और जल गए चावलों के नमूने तक सुरक्षित रखे गए हैं। नव नालंदा महाविहार—सन् 1951 में नव नालंदा महाविहार की स्थापना की गई, जिसमें बौद्ध दर्शन और पाली भाषा तथा साहित्य पर अनुसंधान कार्य आरंभ किया गया। इस महाविहार की आधारशिला तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 20 जनवरी, 1951 में रखी थी तथा 20 मार्च, 1956 को तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन् ने इसके भवन का उद्घाटन किया। बाद में चीन, जापान, श्रीलंका और इंडोनेशिया ने भी इस संस्था के विकास में योगदान दिया। अब नव नालंदा विहार को विश्वविद्यालय के समकक्ष मान्यता प्रदान की गई है। केंद्र सरकार ने बिहार के नालंदा में स्थित नालंदा महाविहार को डीम्ड यूनिवर्सिटी के समकक्ष विश्वविद्यालय का दर्जा दिया है। ह्वेनसांग स्मृति भवन— ह्वेनसांग (श्वेन त्सांड्) स्मृति भवन सातवीं शताब्दी में ह्वेनसांग की भारत यात्रा की स्मृति में बनाया गया है। यह भवन भारत-चीन की दो महान सभ्यताओं के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान का प्रतीक है। ह्वेनसांग ने नालंदा महाविहार (नालंदा विश्वविद्यालय) में पाँच वर्षों तक शिक्षा ग्रहण की थी और एक वर्ष तक अध्यापन का कार्य किया था। चीन वापस जाते समय ह्वेनसांग अपने साथ कई पांडुलिपियाँ भी ले गए और इनका चीनी भाषा में अनुवाद किया। इससे न केवल चीन में बल्कि कोरिया और जापान में भी बौद्ध धर्म की मजबूत नींव रखी गई। राज्य के विश्वविख्यात नालंदा महाविहार में जगमगाता ह्वेनसांग स्मृति भवन अब देसी-विदेशी पर्यटकों के आकर्षण का मुख्य केंद्र बन गया है। नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहर से लगभग एक किलोमीटर दूर एकांत वातावरण के बीच अवस्थित ह्वेनसांग स्मृति भवन एकाग्रता को समेटे प्राचीन ज्ञान स्थली की याद ताजा कर देती है। राजकुमार ह्वेनसांग के सम्मान में बने स्मृति भवन को चीनी मंदिर का स्वरूप दिया गया है। भारतीय और चीनी कलाओं से सुसज्जित इस भवन की दीवारें, कक्ष में प्रवेश करते ही एक अद्भुत दृश्य प्रस्तुत करती हैं। लगभग 65 एकड़ में फैले इस स्थल के मनोरम दृश्य अत्यंत लुभावने हैं। सन् 1960-61 में बने लगभग 108 फीट लंबे और 54 फीट चौड़े इस भवन का विस्तार कर इसे 400 फीट लंबा और 400 फीट चौड़ा बना दिया गया है। इस भवन की दीवारों पर अविस्मरणीय चीनी पेंटिंग्स, पोट्रेट एवं तस्वीरें लगाई गई हैं। भवन की दीवारों में ह्वेनसांग के संपूर्ण जीवन और उनके कार्यों का उल्लेख किया गया है। इसके अलावा चीन सरकार द्वारा दिए उनके अमूल्य पुस्तकों को प्रदर्शित करने के लिए स्मृति भवन को विकसित किया गया है। स्मृति भवन में 12 फीट ऊँची और छह टन भारी ह्वेनसांग की मूर्ति स्थापित की गई है। उसके ठीक पीछे दीवार पर लकड़ी पर भव्य भित्तचित्र लगाया गया है, जिसमें ह्वेनसांग अपने प्रकांड विद्वान् शिक्षक शीलभद्र से शिक्षा ग्रहण करते दिखलाया गया है। भवन के अंदर बाईं ओर की दीवार पर नालंदा महाविहार के प्रकांड विद्वान शिक्षक शीलभद्र का पोट्रेट लगा है और दाईं ओर विश्वयात्री की वेशभूषा में ह्वेनसांग की तस्वीर। स्मृति भवन परिसर के मुख्य द्वार के बाईं ओर एक विशाल स्मृति स्तंभ और दाईं ओर एक विशाल घंटा लगाया गया है। वहीं स्मृति भवन के प्रवेश मार्ग पर चीनी मंदिर की छत का स्वरूप लिया एक भव्य द्वार बनाया गया है। भवन के मुख्य द्वार पर ह्वेनसांग की पीठ पर रूकसैक के लिए आदमकद प्रतिमा उस वक्त के यात्रियों के रहन-सहन की याद दिलाती है। उल्लेखनीय है कि 12 जनवरी, 1957 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री चाउ एन लाई से ह्वेनसांग के स्मृति चिह्न, ह्वेनसांग स्मृति भवन के निर्माण के लिए अनुदान और चीनी तृप्तिका (चीनी और बौद्ध साहित्य) तथा भवन का नक्शा चीन के प्रतिनिधि के रूप में धर्मगुरु दलाईलामा तथा पंचेन लामा की मौजूदगी में नालंदा के नव नालंदा महाविहार में आयोजित एक समारोह में ग्रहण किया था। ह्वेनसांग स्मृति भवन के निर्माण में नव नालंदा महाविहार के संस्थापक निदेशक भिक्षु जगदीश कश्यप का विशेष योगदान है। कुंडलपुर—नालंदा खंडहर से लगभग दो किलोमीटर उत्तर कुंडलपुर (भगवान महावीर की जन्मस्थली) नामक स्थान है। यहाँ दिगंबर जैन धर्मावलंबियों द्वारा एक अति सुंदर नद्यवर्त महल का निर्माण कराया गया है जो एक दर्शनीय श्रद्धास्थल है। शिखर बंद इस मंदिर में भगवान महावीर की श्वेतवर्ण की साढ़े चार फीट अवगाहनवाली भव्य पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। शास्त्रों में वर्णन है कि तीर्थंकर की जन्मनगरी को उनके जन्म के पूर्व स्वर्ग से आकर स्वयं भगवान इंद्र ने व्यवस्थित किया था। मान्यता है कि कुंडलपुरवासियों को 24वें तीर्थंकर के नानवंश में अवतरण की बेला में नमो मंडल से वैभव और विभूति की विपुलावृष्टि हुई थी, जिससे सभी नगरवासी समृद्ध एवं सुखी हो गए थे। उदंतपुरी विश्वविद्यालय यह विश्वविद्यालय भी नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय की तरह विख्यात था, परंतु उदंतपुरी विश्वविद्यालय का उत्खनन कार्य नहीं होने के कारण आज भी धरती के गर्भ में दबा है, जिसके कारण बहुत ही कम लोग इस विश्वविद्यालय के इतिहास से परिचित हैं। अरक के लेखकों ने इसकी चर्चा अदबंद के नाम से की है, वहीं लामा तारानाथ ने इस उदंतपुरी महाविहार को ओडयंतपुरी महाविद्यालय कहा है। ऐसा कहा जाता है कि नालंदा विश्वविद्यालय जब अपने पतन की ओर अग्रसर हो रहा था, उसी समय इस विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी। इसकी स्थापना प्रथम पाल नरेश गोपाल ने सातवीं शताब्दी में की थी। तिब्बती पांडुलिपियों से ऐसा ज्ञात होता है कि इस महाविहार के संचालन का भार भिक्षुसंघ के हाथ में था, किसी राजा के हाथ नहीं। संभवतः उदंतपुरी महाविहार की स्थापना में नालंदा महाविहार और विक्रमशिला महाविहार के बौद्ध संघों का मतैक्य नहीं था। संभवतया इस उदंतपुरी की ख्याति नालंदा और विक्रमशिला की अपेक्षा कुछ अधिक बढ़ गई थी। तभी तो मुहम्मद बिन बख्तियार खिजली का ध्यान इस महाविहार की ओर उत्कृष्ट हुआ और उसने सर्वप्रथम इसी का अपने आक्रमण का पहला निशाना बनाया। खिलजी ने 1197 ई. में सर्वप्रथम इसी की ओर आकृष्ट हुआ और अपने आक्रमण का पहला निशाना बनाया। उसने इस विश्वविद्यालय को चारों ओर से घेर लिया, जिससे भिक्षुगण काफी क्षुब्ध हुए और कोई उपाय न देखकर वे स्वयं ही संघर्ष के लिए आगे आ गए, जिसमें अधिकांश तो मौत के घाट उतार दिए गए, तो कुछ भिक्षु बंगाल तथा उड़ीसा की ओर भाग गए थे और अंत में इसमें आग लगवा दी। इस तरह विद्या का यह मंदिर सदा-सदा के लिए समाप्त हो गया। उल्लेखनीय है कि उदंतपुर को ही इन दिनों बिहारशरीफ के नाम से जाना जाता है। बिहारशरीफ के पास नालंदा विश्वविद्यालय होने के बावजूद उसी काल में उसी के नजदीक एक अन्य विश्वविद्यालय की स्थापना होना आश्चर्य की बात है। उदंतपुरी के प्रधान आचार्य जेतारि और अतिश के शिष्य थे। एक समय विद्या और आचार्यों की प्रसिद्धि के कारण इसका महत्त्व नालंदा से अधिक बढ़ गया था। उदंतपुरी महाविहार के उन्नत तथा विकासशील बनाने में यहाँ के विद्यार्थियों तथा आचार्यों का विशेष योगदान रहा है। इनमें अतिश दीपंकर, ज्ञानश्रीमित्र, शांति-पा, योगा-पा, शांति रक्षित आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इस विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति प्रभाकर थे। मित्र योगी कुछ दिनों तक प्रधान आचार्य पद पर थे। तिब्बती पांडुलिपियों के अनुसार वहाँ के प्रसिद्ध राजा खरी स्त्रोन डसुत्सेन शिक्षा प्राप्त करने आए थे। शांतिरक्षित इस महाविहार के प्रथम शिष्य रहे हैं, जिनके द्वारा यहाँ के सांस्कृतिक वैभव को देश-विदेशों में ख्याति प्राप्त करने का श्रेय रहा। इस विश्वविद्यालय में देश-विदेश के लगभग एक हजार विद्यार्थी अध्ययन किया करते थे। नालंदा व विक्रमशिला विश्वविद्यालय की तरह देश के राजाओं तथा धनाढ्य लोगों द्वारा सहायता मिलती थी। फिर भी उदंतपुरी विश्वविद्यालय बौद्ध धर्म के माननेवाले तथा भिक्षुओं का मुख्य केंद्र था। तिब्बत में इनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की जाती है। आज भी उनके कमंडल, खोपड़ी और अस्थियाँ वहाँ के संग्रहालय में सुरक्षित हैं। शांतिरक्षित लगभग 743 ई. में जब वे तिब्बत गए तो वहाँ पर उदंतपुरी महाविहार के समरूप ही एक बौद्ध विहार का निर्माण कराया, जिसे ‘साम्ये विहार’ के नाम से जाना जाता है। यहाँ भी एक बहुत बड़ा समृद्धशाली पुस्तकालय के संबंध में कहा जाता है कि जितना विशाल संग्रह यहाँ उपलब्ध था, उतना संग्रह विक्रमशिला विश्वविद्यालय में भी नहीं था। बुकानन और कनिंघम ने आधुनिक बिहारशरीफ शहर जो कि नालंदा जाने के मार्ग में पड़ता है, वहाँ एक विशाल टीला का उल्लेख करते हैं। यहाँ के एक बौद्ध देवी की कांस्य की प्रतिमा प्राप्त हुई है। इस पर एक अभिलेख अंकित है जिसमें एणकठाकुट का नाम उल्लेखित है। यह उदंतपुरी का निवासी था। शायद इसी अभिलेख के आधार पर इस स्थान की पहचान उदंतपुरी विश्वविद्यालय से की गई है। पहुँचने का मार्ग सड़क मार्ग—पटना से 95 किलोमीटर, राजगीर से 12 किलोमीटर, बोधगया से 90 किलोमीटर (गया होकर), पावापुरी से 26 किलोमीटर रेलमार्ग—निकटवर्ती रेलवे स्टेशन राजगीर व नालंदा हवाई मार्ग—पटना और गया हवाई अड्डा कहाँ ठहरें—यहाँ ठहरने के लिए आपको शहर में होटल-रेस्ट मिलेगा। सरकारी रेस्ट हाऊस तथा बँगला भी है, जिसमें ठहरने के लिए दो-तीन दिन पहले आदेश लेना पड़ता है। इसके अलावा यहाँ एक यूथ होस्टल भी है। फिर भी राजगीर में ठहरना अच्छा होता है क्योंकि यहाँ खाने के लिए होटल नहीं है। सामान्य जानकारी नालंदा (जिला नालंदा) क्षेत्रफल—2367 वर्ग किलोमीटर चौहद्दी—उत्तर—पटना एवं नवादा दक्षिण—गया एवं नवादा पूर्व—मुंगेर पश्चिम—जहानाबाद नदी—फल्गू और मुहाने तापमान—गर्मी—अधिकतम 48 सेंटीग्रेड—न्यूनतम 18 सेंटीग्रेड जाड़ा—अधिकतम 28 सेंटीग्रेड—न्यूनतम 15 सेंटीग्रेड वर्षा—120 सेंटीमीटर उत्तर मौसम—नवंबर से फरवरी एस.टी.डी. कोड—06112 (लेखक हिंदुस्तान, पटना संस्करण में बिजनेस पेज के प्रभारी व बिहार पर्यटन सम्मान से सम्मानित हैं।) |
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