Wednesday, August 1, 2012

राजस्थान में बौद्ध धर्म के पुरातात्विक स्थल .


राजस्‍थान की धरती के गर्भ में बौद्ध धर्म के जिन्‍दा-प्रमाण   --सत्‍यपाल बौद्ध
लाभ निकेतन भारत नगर
       वार्ड ने. 31, रतनगढ – 331022 (चूरू)
                                                                                                           मो. 9460024587, 8107616365
      एक समय था जब यह देश बहुसंख्‍यक बौद्धधर्मावलम्‍बी देश था। सम्‍पूर्ण भारत वर्ष में सदिया से-सदियों तक बौद्ध धर्म की खुशबू से चहुँ और त्रिशरण एवं पंचशील गुंजायमान हुआ करते थे। चक्रवर्ती सम्राट अशोक से लेकर हर्षवर्धन, कनिष्‍क, गुप्‍त शासक बुद्धगुप्‍त व नरसिंह गुप्‍त जैसे महाप्रतापों कई बौद्ध राजाओं ने भारत पर शासन किया है जिनके वंशों का एक लम्‍बा इतिहास भरा पडा है। अत: कहना न होगा हमारे पुरखे बौद्ध थे।
      इतिहास का विद्यार्थी जानता है कि सम्राट अशोक ने जन कल्‍याण हेतु लोक हित में बौद्ध धर्म के चौरासी हजार धम्‍मोपदेशों को भारत वर्ष मं चारों ओर विशाल, सांची के स्‍तूप सरिके चौरासी हजार बुद्ध विहार (मंदिर, मठ, स्‍तूप,चैत्‍य) बनवाये तथा चौरासी  हजार बुद्ध विहारों में हर एक में एक धम्‍मोपदेश को शिलालेख पर खुदवाकर स्‍थापित किया। विश्‍व धरोहर हैरत अंगेज कर देनेवाले कम्‍बोडिया के जंगलों में फैला अंगकोरवाट के प्राचीन बुद्ध मंदिर हों या  ओसामा बिन लादेन द्वारा अफगानिस्‍तान में तोडी गई बामियान के विशालकाय पहाडों को तराशकर बनाई गयी बुद्ध मूर्तियॉं। यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि बौद्ध धर्म कितनी दूर-दूर तक फैला हुआ था। समूचे एशिया को आप्‍लावित कर बौद्ध धर्म यूरोप तक जा पहँचा। अल-बेरूनी के अनुसार इस्‍लाम का उदय होने से पूर्व इराक, ईरान, अफगानिस्‍तान आदि देशों के लोग बौद्ध अनुयायी थे। ईसा मसीह स्‍वयं कश्‍मीर के एक बुद्ध विहार में तेरह वर्षों तक रहे, तभी तो ईसाई धर्म में बौद्धधर्म की गहरी छाप है। बारलम और जासाफत की कथा में बोधिस्‍तव का वृतान्‍त मिलता है। रूमानिया के प्रान्‍त मोलदावा से आर्यप्रज्ञापारमिता की पोथी के दो काले पन्‍ने मिले हैं। स्‍वीडन के हेलगोद्वीप में कमल पर पदमासन मुद्रा में बैठे बुद्ध मूर्ति मिली हैं। इंग्‍लैण्‍ड के सैन्‍ट लोग बौद्ध थे। इसी प्रकार रूस में भी बौद्ध धर्म के चिन्‍ह दुर्लभ नहीं है।
      तो ये थे ईसा पूर्व तीसरी शताब्‍दी में सम्राट अशोक द्वारा अपने जीवन काल में बनवाये गये चौरासी हजार बुद्ध विहार जिसे अपनी ज्ञान पिपासा शांत करने आए दार्शनिक,चीनी यात्री ह्रेनसांग ने स्‍वयं गिने, जिसके ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद हैं, किन्‍तु उसके बाद भी और छोटे-बडे बुद्ध विहारों का बनना सदियों तक अनवरत जारी रहा। ऐसे में गांव-बस्‍ती में बने बुद्ध विहारों को गिनना सम्‍भव  हो सकता था?  यह बौद्ध काल का ही गौरवशाली इतिहास रहा है, जब विश्‍व धर्म गुरू भारत को सोने की चिडिया कहा जाता था। खुशहाली  इतनी थी कि कहते हैं यहॉं दूध-दही की नदियॉं बहती थीं।जैसा कि मैगस्‍थनीज ने इंडिका में लिखा है कि स्‍नेह और विश्‍वास इतना था कि कहते हैं लोग अपने घरों में ताले तक नहीं लगाया करते थे। 
भगवान बुद्ध का महान उपदेश ‘’अनिच्‍चा च संरवारा’’ अर्थात क्षण-क्षण परिवर्तनशील है। समय परिवर्तन हुआ और विदेशी आक्रांताओं के साथ भारत के कुछेक सिर-फिरे लोगों के कुकृत्‍य से इन बुद्ध विहारेां को तोडा गया तो कुछेक का स्‍वरूप बदल दिया गया। भयंकर लूट-पाट हुई। शिक्षा के केन्‍द्र नालन्‍दा विश्‍वविद्यालय तक को आग के हवाले कर दिया गया। त्रिपिटक और भिक्षुआं द्वारा खोज कर लिखे गये ग्रंथों को जला दिया गया।भिक्षुओं की गर्दनें तक काट दी गयी। आम जनता में भय फैल गया। भिक्षु जान बचाकर भारत से भागे और इस प्रकार भिक्षुओं के अभाव में बौद्धधर्म भारतसे लुप्‍त प्राय: हो गया।
भारत पर कई बार विदेशी आक्रांताओं ने हमला किया। कुछेक ने लूट-पाट की और चले गये। किन्‍तु-विदेशी मुगलों ने तो यहां पांच सौ सालों तक शासन किया। मुगलों के बाद अंग्रेजों ने लगभग दो सौ सालों तक शासन किया। अंग्रेजों का नजरिया औरों से भिन्‍न था। अंग्रेज ऐतिहासिक महत्‍व की धरोहर को ज्‍यादा ही महत्‍व देते थे। ब्रिटिशकाल में ही हडप्‍पा और मोहनजोदडों से भारत की प्राचीन सभ्‍यता पहली बार दुनिया के सामने आयी। एक अंग्रेज टीफन्‍थर ने ही सर्वप्रथम सारनाथ (वाराणसी) में सम्राट अशोक द्वारा बनवाये गये बुद्धविहार से सिंह-स्‍तम्‍भ को खोजा। इसी सिंह-स्‍तम्‍भ को आज अशोक  स्‍तम्‍भ कहा जाता है, और उसमें बने धम्‍म-चक्‍क को अशोक चक्र कहते हैा। यही भगवान बुद्ध का धम्‍म-चक्‍क अथवा धर्म चक्र भारत के राष्‍ट्रीय ध्‍वज में शोभायमान है। इसरों के प्रोब पर अंकित राष्‍ट्र ध्‍वज के साथ, बौद्ध धर्म चॉंद पर जा पहुँचा है।
इस प्रकार अंग्रेजों की अन्‍वेषणशील सोच की वजह से यहींसे शुरू हो जाता है पूरे भारत में गह-जगह लूट-पाट कर जमींदोज कर दियेगये प्राचीन बुद्ध विहारों के अवशेष मिलना, जो आत तक निरन्‍तर जारी है। तो आइये हम जाने राजस्‍थान में मिले अब तक के प्राचीन बौद्ध कालीन अवशेष कहॉं-कहॉं प्राप्‍त हुए है।
बैराठ (जयपुर)  राजस्‍थान की राजधानी जयपुर के पास ही बैराठ है। बैराठ ही विराटनगर है। इसे भाब्रू भी कहते हैं। प्रचीन काल में यह क्षेत्र मत्‍स्‍य प्रदेश कहलाता था। कहते हैा यहां कभी सम्राट अशोक विपश्‍यना में रत् ध्‍यान साधना करते थे। यहॉं बीजक की पहाडियां पर सम्राट अशोक के समय के प्राचीन बुद्ध विहार के अवशेष मिले हैं। एक शिलालेख भी प्राप्‍त हुआ, जिसे भाब्रू अभिलेख कहते हैा। सम्राट अशेंक द्वारा स्‍थापित भाब्रू अभिलेख बौद्ध धर्म को समझने व इस क्षेत्र में इसकी उपस्थिति का स्‍पष्‍ट प्रमाण है। इसमें न केवल बुद्ध, धम्‍म और संघ के प्रति अपनी श्रद्धा का प्रदर्शन किया गया हैं वरन् भिक्षु, भिक्षुणी तथा उपासक-उपासिकाओ के अध्‍ययन एवं मनन के लिए कतिपय बौद्ध ग्रन्‍थों का उल्‍लेख भी करता है। यह लेख इस प्रकार हैं- मगध के प्रियदर्शी राजा संघ का अभिवादन करके यह कामना करते हैं कि वे स्‍वस्‍थ और निरापद रहें। हे! भदन्‍तगण जो कुछ भगवान बुद्ध ने कहा है वह सब अच्‍छा कहा है। परन्‍तु हे! भदन्‍तगण, यदि मैं सद्धम हो चिरस्‍थायी करने के लिए (बुद्ध)कह सकता हूँ तो मैं उसे कहना उचित समझता हूँ। हे! भदन्‍तगण ये धर्मग्रन्‍थ है नियसमुकस, अलियवसानि, अनगतिभ्‍यानि, मुनिगाथा,मोनेयसूत, उपतिस-पसिव, राहुलवाद जिसमें भगवान बुद्ध ने मिथ्‍याचारके संबंध में कहा है।हे! भदन्‍तगण, मैा इसलिए यह लेख उत्‍कीर्ण करवा रहा हूँ कि लोग मेरी इच्‍छा जान सकें।‘’
इधर उधर चारों ओर टूटे हुए मन्दिर के अवशेष आज भी बिखरे पडे हैा। एक सिंह स्‍तम्‍भ (अशोक स्‍तम्‍भ) भी मिला था, जिसका शीर्ष काटा गया था। वर्तमान में यह सिंह स्‍तम्‍भ कलकत्‍ता संग्रहालय मं सुरक्षित रखा गया है। बताया जाताहै यहां एक सोने की स्‍वर्ण-मंजूषाभी मिली थी, जिसमें तथागत भगवानबुद्ध की पवित्र अस्थियॉं सुरक्षित रखी हुइा थी। यह स्‍वर्ण-मंजूषाअब कहॉं है? कोई नहीं जानता।
साम्‍भर – जयपुर जिले का गॉंव साम्‍भर। यहॉं खारे पानी की झील है। यहां बडे पैमाने पर नमक का उत्‍पादन होता है। यहॉं आबादी क्षेत्र में एक मुस्लिम की जमीन है जिसमें पडे हुए पत्‍थरों को वह अपने पुरखों की कब्र बताया करता था। एक दिन जब उसने अपनी इस जमीन के चारदीवारी बनवाने के लिए नींव खुदवाई तो तराशे हुए पत्‍थरेां के टुकडे और बुद्ध प्रतिमाएं निकली, मूर्तियॉं देख पूरे साम्‍भर ग्राम में कोलाहल मच गया। साम्‍भर के हिन्‍दुओं ने इसे भगवान विष्‍णु का मन्दिर बताकर उस पर हिन्‍दुओं का हक जताकर प्रशासन में अर्जी लगा दी। चुकि जमीन गॉंव के मध्‍य में और आबादी क्षेत्र मे आती है, इसलिए इसका मूल्‍य समझा जा सकता है। कहा जाता है कि हिन्‍दू व मुसलमानों के विवाद के चलते यह मामला अदालत में लम्बित पडा है। इसलिए यह स्‍थल वैसा का वैसा ही पडा है और अवशेष बिखरे हुए आज भी पडे हैं।
 लालसोट (दौसा)) दौसा जिले का गॉंव लालसोट, यहॉं पर प्राचीन बौद्धकालीन अवशेष यत्र-तत्र बिखरे पडे हैं। प्राचीन भारतीय ऐतिहासिक विरासत को सुरक्षित रखना क्‍या सरकार का काम नहीं है?  
भण्‍डारेज (दौसा) गुर्जर बाहुल्‍य इस क्षेत्र में भण्‍डारेज गॉंव की पहाडियों पर भी प्राचीन अवशेष बिखरे पडे हैं।
रेढ (टॉक) यह ओंक जिले में स्थित है। यहॉं इतिहास पुरातत्‍व से जुडी बहुत सी सामग्री प्राप्‍त हुई है। इसी सामग्री में बौद्ध धर्म से जुडी कई प्रकार की सामग्री यहॉं प्राप्‍त हुई है। यहॉं स्‍वर्ण, रजत एवं मिट्टी की पंचमार्क मुद्रायें जो बौद्ध काल में प्रचलित थी प्राप्‍त हुई हा। कुछ भिक्षुआं के वेश में प्राप्‍त मूर्तियों के टुकडे मिले हैं। जिससे भी अनुमान लगता हैं यहॉं बौद्ध धर्म किसी समय अवस्थित था।
      झालावाड की गुफायें  विश्‍व प्रसिद्ध पर्यटन केंद्र अजन्‍ता, एलोरा व कन्‍हेरी की गुफाओं की तरह यहॉं झालावाड में भी प्राचीन बौद्ध गुफाएं विद्यमान है।
पुष्‍कर अजमेर के पास है पुष्‍कर टिला। यहॉं एक स्‍थान को बुढा पुष्‍कर कहा जाता है। यहॉं प्राचीन बौद्धकालीन बुद्ध विहार के अवशेष ि‍बखरे पडे हैं। प्रसिद्ध सांची-स्‍तूप (भोपाल) के प्रवेश द्वारा पर उकेरे गये अक्षरों से ज्ञात हुआ कि बुद्ध पुष्‍कर से चार बौद्ध भिक्षुओं व एक भिक्षुणी ने सांची स्‍तूप  के निर्माण में सहायतार्थ धन राशि दी व श्रम दान भी किया था। नि:सन्‍देह बुढा पुष्‍कर ही बुद्ध पुष्‍कर का अपभ्रंश है।
चित्‍तौडगढ प्रसिद्ध चित्‍तौडगढ का किला यहॉं पर भी प्राचीन बौद्धकालीन अवशेष बिखरे पडे हैं। इस स्‍थान पर बापा रावल ने 7वीं ई. में गुहिल राजवंश की नींव रखी थी। यह नींव मौर्य शासकों को पराजित कर रखी गयी थी। चित्‍तौड के किले की नींव भी चित्रांग मौर्य नामक शासक ने रखी थी उसी का विस्‍तार बापा ने करवाया था तो निश्चित रूप से यहॉं भी बौद्ध धर्म उन्‍नत अवस्‍था में था, क्‍योंकि मौर्यों का राज धर्म बौद्ध था। अत: प्रजा पर भी इसका असर पडना स्‍वाभाविक था, हो सकता है कि आगे चलकर बौद्ध धर्म के सम्‍बन्धित स्‍मारकों स्‍थानों का रूप परिवर्तन कर दिया गया हो। इतिहासकार कर्नल जेम्‍सटॉड ने चित्‍तौड से एक शिलालेख प्राप्‍त किया था। उसे मानमोरी शिलालेख कहा जाता है। यह लेख 712 इा. का था परंतु टॉड ने इंग्‍लैण्‍ड जाते समय इसे अनावश्‍यक समझते हुए समुद्र में फेंक दिया था। इस पर मौर्य शासकों व बौद्ध धर्म का उल्‍लेख था परंतु आज इस विषय मं कुछ भी तथ्‍यात्‍मक रूप से नहीं कहा जा सकताहै। यहॉं पर यदि पुरात्तत्‍व विभाग सर्वे करवाये तो आश्‍चर्यजनक तथ्‍य उजागर होने की सम्‍भावना है।
भीनमाल (जालौर) यह जालौर जिले में स्थितहै। यहॉं चीनी बौद्ध विद्वान ह्रनसांग हर्षवर्धन के काल में यहॉं आये थे तो अवश्‍य ही इस स्‍थान पर भी बौद्ध धर्म से सम्‍बन्धित दर्शनीय स्‍थल रहा होगा जिसे देखने वह यहॉं कंधार के रास्‍ते से आये थे। भीनमाल का वर्णन ह्रेनसांग द्वारा लिखित सीयूकी (मेरा भारत वृतांत) में मिलता है। अत: यहॉं पर यदि सर्वे करवाया जाए तो निश्चित रूप से इतिहास व पुरातत्‍व के लिए अति महत्‍वपूर्ण प्राचीन बौद्धकालीन अवशेष मिल सकते है।
मण्‍डोर (जोधपुर)  सरीलंका (श्रीलंका) के बौद्ध भिक्षु नन्‍दवर्धन बोधि ने जब मण्‍डोर का किला प्रथम बार देखा तो वे भावुक हो गये। उनके आश्‍चर्य का ठिकाना न रहा। उन्‍होंने दावे से कहा यह कोई किला नहीं था। यह तो चक्रवर्ती सम्राट अशोक द्वारा बनवाये गये चौरासी हजार बुद्ध विहारेां में से एक है। आज भी विशालकाय बुद्ध विहार के टूटे पत्‍थरों पर बौद्धकालीन कला-संस्‍कृति स्‍पष्‍ट देखी जा सकती है। यही नहीं सबसे ऊँचे खण्‍डर के पत्‍थरों पर भगवान बुद्ध की मूर्तियॉं उकेरी हुई आज भी विद्यमान है। पता नहीं क्‍यों इस मण्‍डोर बुद्ध मूर्तियों एवं अन्‍य सामान की सूची रजिस्‍टर में दर्ज गौराऊ निवासी श्री भागूराम डोडवाडिया जाट के पास रखी हुई हैा
खाटू नागौर जिले के डेंगाना के पास ग्राम खाटू है। यहॉं की पहाडियों में बौद्धकालीन अवशेष आज भी बिखरे है।
गौराऊ  नागौर जिले की तहसील जायल में ग्राम गौराऊ है। यहां 1987 में केशो पुत्र भैरजी जाट के खेत से प्राचीन बुद्ध विहार के अवशेष प्राप्‍त हुएहैं। यहॉं धातु की इक्‍कीस बुद्ध मूर्तियों के साथ झालर, कटोरदान इत्‍यादि के साथ मन्दिर के ऊपर गुम्‍बद (शिखर) पर लगने वाला शिखर, पूरा का पूरा सोने का प्राप्‍त हुआ था तथा पत्‍थरकी 3,3 व 31/2 फीट की तीन  मूर्तियॉं मिली जो आज भी गॉव में मौजूद है। इन तीनों पत्‍थर  की मूर्तियां को गॉंव के सहयोग से बनवाये गये नवीन बुद्ध विहार में स्‍थापित किया गया है। गॉंव में मिली इन सभी बुद्ध मूर्तियों एवं अन्‍य सामान की सूची रजिस्‍टर में दर्ज गौराऊ निवासी श्री भागूराम डोडवाडिया जाट के पास रखी हुई है।
लांडनूं नागौर जिले की तहसील है लाडनूं जो जैन विश्‍व भारती के कारण भी प्रसिद्ध है। यहॉं प्राचीन काल का बुद्ध विहार आज भी सुरक्षित है। ब्रिटिश काल में निकले इस बुद्धविहार में, लाल पत्‍थर की तीन बुद्ध प्रतिमायें इसी विहार मं सुरक्षित रखी हैं। वर्तमान में मन्दिर के गर्भ गृह में बुद्ध प्रतिमा के स्‍थान पर संगमरमर की बनी आधुनिक दो प्रतिमायें जैन तीर्थकर की स्‍थापित है। तभी तो आगन्‍तुक इसे बुद्ध विहार की जगह जैन मन्दिर समझने लगे हैं।मन्दिर के बाहर बडे अक्षरों में ‘’श्री दिगम्‍बर जैन मन्दिर, बडा लाडनूं’’ लिखा हुआ है।
स्‍यानण प्रसिद्ध सालासर बालाजी मन्दिर के पास ही एक गॉंव स्‍यानण है। यहॉं आलू की आकृति जैसे बडे-बडे विशालकाय पत्‍थर एक क ऊपर एक टिके हैं। जैसे मानो किसी ने क्रेन से रखें हों। कोई भी व्‍यक्ति इसे देखकर आश्‍चर्य चकित हुए बिना नहीं रह सकता। इन्‍हीं गोल-गोल पत्‍थरों के साथ ही पहाडी पर बना है एक मन्दिर जिसमें एक काली मॉं की फोटो लगी है, इसी कारण इसे काली मन्दिर कहते हैा। हकीकत में यह प्राचीन बुद्ध विहार है। न जाने किसने कब इस मन्दिर से बुद्ध मूर्ति को तोडकर काली मॉं की फोटो लगा दी। मन्दिर में ऊकेरी गयी बौद्धकालीन कलाकृतियॉं मन्दिर के प्राचीन इतिहास को बयान करती है। इस मन्दिर की एक विशेषता यह भी है कि मन्दिर में यदि मूर्ति रखी जाये तो उसका मुँह दक्षिण दिशा  में होगा और मन्दिर के ऊपर ही पहाडी पर मूर्ति के ठीक सामने लगा बोधिवृक्ष (पीपल का पेड)इसकी दूसरी विशेषता है। पहाडी पर बने मन्दिर के पास पहाडी में छोटी-छोटी प्राकृतिक गुफाएं हैं जिनमें टूटी मूतिर्यों के अवशेष बिखरे पडे हैं1 गुफा को उल्‍लुओं ने अपना बसेरा बना रखा है। विडम्‍बना देखें कभी शांति व अहिंसा के पर्याय इस बुद्ध विहार में आज हिंसा होती है। काली मॉं के नाम पर निरीह पशुओं की बली चढाई जाती हैं।
सांखू (राजगढ)  चूरू जिले क राजगढ तहसील में सांखू फोर्ट नामक ग्राम में आज से करीब वर्ष भर पूर्व एक राजपूत परिवार की जमीन मे निर्माण कार्य चल रहा था तभी अचानक किसी भवन की ऊपरी भाग जमीन की सतह पर निकला जब खुदाई हुई तथा इतिहास अध्‍ययन से जुडे लोगों ने इसका निरीक्षण किया तो इसे बौद्ध मठ प्रतीत होता बताया गया था।   
लधासर (रतनगढ) जिला चूरू की तहसील रतनगढ के पास में है एक गॉंव लधासर। हाल में यहॉं की रोही में पर्वतसिंह के खेत से प्राचीन बौद्धकालीन अवशेष मिले हैं।यहॉं से प्राप्‍त अवशेषों की तुलना हम पत्‍थरों पर की गई नक्‍काशी के आधार पर अजन्‍ता व एलोरा की गुफाओं के चित्रों से कर सकते है। इन गुफाओं की चित्रकारी व प्राप्‍त अवशेषों की चित्रकारी में बहुत सी समानताऍं नजर आती है। यहां जो पत्‍थर क अवशेष प्राप्‍त हुए है वह किसी बौद्ध स्‍तूप या मठ का ऊपरी तोरण द्वार था, जिसका किसी अज्ञात कारणवश विध्‍वंस किया गया था। उसी के अवशेष प्राप्‍त हुए पत्‍थर इतने विशाल है कि ये किसी दूसरे स्‍थान से लाकर रखे गये नहीं हो सकते। कला की तुलना हम बौद्धकालीन स्‍थापत्‍य व चित्रकला से कर सकते है। यहां सरकार की ओर से जयपुर से आये दो पुरातत्‍वविदों ने इनका निरीक्षण किया है। सरकार द्वारा मंजूरी मिलने पर यहॉं खुदाई का कार्य शुरू किया जायेगा। निश्‍चय ही यहॉं ऐतिहासिक दृष्टि से अति महत्‍वपूर्ण अवशेष मिलेंगे। जिससे रतनगढ को एक विशिष्‍ठ पहचान प्राप्‍त होगी परंतु जब उत्‍खनन होगा तो सदैव की भांति तथ्‍यों को तोड मरोडकर प्रस्‍तुत करने का भी प्रयास किया जायेगा ।
रतनगढ से ही प्राप्‍त एक शिला (प्रस्‍तर खण्‍ड) जो वर्तमान में बीकानेर संग्रहालय में सुरक्षित है जिस पर ऊकेरी गयी नृतक-गायन को देखने से बौद्धकालीन अजंता एलोरा की शिल्‍पकला का स्‍मरण हो आता है। कुछ समय पूर्व नृतक-गायन का ऐसा ही दूसरा और खण्डित प्रस्‍तर खण्‍ड जो लावारिस पडा मिला, जिसे नगर के समाधि स्‍थल शिवालय में रखा गया है। ये दोनों ही प्रस्‍तर-खण्‍ड किसी प्राचीन बुद्धविहार के अवशेष लगते है। दोनों प्रस्‍तर फलक रतनगढ में कहॉं, किस मन्दिर के है? कोई नहीं जानता। आशा की जा सकती है ये रहस्‍य कभी तो उजागर हो ही जायेगा।
मेरी जानकारी के अनुसार ये है प्रदेश की हमारी विरासत और बौद्ध धर्म के इतिहास के जिन्‍दा प्रमाण, वे ज्ञात, अल्‍पज्ञात संरक्षण से उपेक्षित प्राचीन बौद्धकालीन अवशेष जो अब तक राजस्‍थान में मिले है। किन्‍तु गुमनामी में, धरती के गर्भ में दफन न जाने और कितने हैं, जो छपे हुए हैं? जिनका प्रकट होना शेष है। क्‍या स्‍यानण के बुद्ध विहार की तरह और बुद्धविहार नहीं मिल सकते? जिनका स्‍वरूप भी बदला हुआ हो। क्‍या राजस्‍थान के ये अवशेष बयां नहीं करते?  कभी यहॉं बौद्ध आबादी थी। नि:संदेह हमारे पूर्वज बौद्ध थे। वरना कया कारणहै? हमारे तीज-त्‍यौंहार, रीति-रिवाज, परम्‍पराओं एवे जीवनशैली में बौद्ध संस्‍कृति की झलक स्‍पष्‍ट दिखाई देती है। स्‍मरण रहे, बुद्ध की शिक्षाये प्राचीन है, प्राकृतिक सत्‍य, शाश्‍वत, सनातन है, तभी तो गौतम बुद्ध ने घोषित किया एस धम्‍मो सनन्‍तनो अर्थात धम्‍म ही सनातन है और इस प्रकार केवल बुद्धधम्‍म को ही सनातन-धर्म का गौरव प्राप्‍त है। यद्यपि वर्तमान भारतीय संस्‍कृति में विदेशी घालमेल हो चुका है। किन्‍तु जिन्‍हें विशुद्ध प्राचीन भारतीय श्रमण संस्‍कृति का ज्ञान है, वे बखुबी भारतीय जनमानस में बौद्ध संस्‍कारों को पहचानते हैं।
जहॉ प्राचीन बौद्धकाल मे कुछ भिक्षु एक स्‍थान पर रहकर विपश्‍यना में रत, ध्‍यान साधना में लीन रहते थे तो कई भिक्षु घुमक्‍कड प्रवृत्ति के होते थे। जो धम्‍म के प्रचार-प्रसार में दुर्गम से दुर्गम स्‍थानों में जाने से भी नहीं डरते थे। ऐसे में प्राकृतिक सौन्‍दर्य से अलंकृत कोई भी स्‍थान जेसे नदी,झील, झरना,पहाड इत्‍यादि पर भिक्षुओं ने पडाव न डाला हो ,तो ही नहीं सकता। जिस स्‍थान पर भिक्षुगण रहते वहॉंु बुद्ध विहार का निर्माण अवश्‍य करते थे। ऐसे में राजस्‍थान का माउंट आबू हो या झीलों की नगरी उदयपुर, कोलायत हो या लोहार्गल, ये स्‍थान भिक्षुओं से छूट जाने का सवाल ही नहीं होता। यहॉं पर यदि सर्वे हो तो निश्चित रूप से यहॉं बौद्धकालीन अवशेष प्राप्‍त होंगे।
भवतु सब्‍ब मंगल।

सत्‍यपाल बौद्ध
लाभ निकेतन भारत नगर
वार्ड ने. 31, रतनगढ – 331022 (चूरू)
मो. 9460024587, 8107616365
  साभार टंकण:-  श्री फबाद अहमद, कार्यालय सहायक,
डॉ. भदन्त आनन्द कौसल्यायन बौद्ध अध्ययन केन्द्र
    महात्मा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा 

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