Sunday, July 13, 2014

सीमित सरोकारों वाला लेखक संघ


सीमित सरोकारों वाला लेखक संघ-
प्रो. विवेक कुमार, समाजशास्त्र विभाग, जे.एन.यू.
क्या पल्रेस लेखकों ने कभी कोई कहानी, कविता, नाटक चमरोटी, चेरी या अन्य किसी दलित बस्ती को केंद्र में रखकर लिखी है । लगता तो नहीं है। रचना की भौतिक स्थिति एवं उसमें रचनाकार का जीवन जीना रचना की गुणवत्ता पर असर डालता है। परंतु यह घटित होना अभी बाकी है। अगर ऐसा होता तो पल्रेस इसका ढिंढोरा अवश्य पीटता।
प्रलेस की 75 वीं वषर्गांठ अपने आप में भारतीय साहित्य विशेषकर हिन्दी पट्टी के साहित्य के लिए एक टिप्पणी है। यह इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि भारतीय साहित्य कहीं न कहीं रूढ़िवादी या यथास्थितिवादी मूल्यों, मान्यताओं आदि में अवश्य फंसा रहा होगा वरना एक समूह क्यों प्रगतिशीलता का दावा करता। वह भी नौ सौ साल बाद अगर हम हिन्दी साहित्य के आदिकाल को हिंदी साहित्य का आरंभ माने। पल्रेस की निरंतरता यह भी संदेश देती है कि अब भी संघर्ष जारी है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि भारतीय साहित्य में प्रगतिशील एवं रूढ़िवादी लेखन की दो समानान्तर शाखाएं हैं। ऐसा नहीं है कि एक के आने से दूसरे का अंत हो गया। दुख का विषय यह है कि 75 वर्ष के पश्चात जब हम इस आंदोलन का तटस्थ होकर आकलन करते हैं तो यह क्षीण होता दिखाई दे रहा है। इसका प्रमाण हाल ही में लखनऊ में पल्रेस की हीरक जयंती सम्मेलन में मिला। इस सम्मेलन में पल्रेस के बड़े कद वाले लेखक-आलोचक भारतीय संविधान में प्रदत्त आरक्षण व्यवस्था पर ही प्रश्न उठाने लगे। कुछ साहित्यकारों ने इसे जातिवादी टिप्पणी कहा है। ऐसा नहीं है कि इस आलोचक ने ऐसा पहली बार किया है। दूसरी परम्परा की खोज में अपने गुरु जी की व्यावसायिक अस्मिता पर उनकी वर्णीय अस्मिता पंडित जीएवं द्विवेदी जीका जामा पहना कर पहली परम्परा को और भी मजबूत किया। अत: हमें यह पड़ताल करनी होगी कि पल्रेस की आड़ में कितने लेखकों ने प्रगतिवादी लेखन को कितना नुकसान पहुंचाया होगा। उन्होंने रूढ़ियों तथा यथास्थितिवाद के कहीं और मजबूत तो नहीं किया? दलित साहित्य ज्यादा क्रांतिकारी पल्रेस के लेखकों ने अपनी वर्गीय विचारधारा के आधार पर भारतीय या विशेषकर हिन्दू मूल्यों को चुनौती अवश्य दी होगी। परंतु आज जब हम दलित साहित्य का आकलन करते हैं तो उनकी रचनाएं पल्रेस लेखकों की रचनाओं से ज्यादा क्रांतिकारी दिखाई देती है। भारतीय समाज की संरचनाओं यथा-भारतीय गांव, जाति व्यवस्था, परिवार आदि का जितना यथार्थ चितण्रदलित साहित्य में पढ़ने को मिलता है, उसकी प्रगतिशील साहित्य में कमी अखरती है। दलित आत्मकथाओं ने जिस प्रकार भारतीय गांवों में दलितों की जिंदगी का चितण्रकिया है, वह पल्रेस लेखकों से कोसो आगे है। दलित समाज चमरौदी, महारवाड़ा, चेरी मादिगावाडा आदि से गांव किस प्रकार देखता है, वह प्रतिशील लेखक लिख कर भी नहीं लिख सकता था क्योंकि उसे यह सब लिखने के लिए उसे वहां पर ही पैदा होना होता या फिर वहीं पर पला और बड़ा होना होता। परंतु वर्णीय परिस्थितिक उसे यह स्वतंत्रता भी नहीं देती।
इसी कड़ी में दलित साहित्यकारों ने हिन्दू समाज में जिस तरह गुरुकी छवि एवं महिमा का विखंडन किया है, वह सराहनीय है। यह पक्ष पल्रेस में नदारद है। अपवाद हो सकते हैं। कहां गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेर..बताया जा रहा है वहीं दलित साहित्यकार अपनी स्वानुभूति के आधार पर क्रूर, कपटी, निर्दयी, जातिवादी घोषित कर रहे हैं (ओमप्रकाश वाल्मीकि-जूठन, श्योराजसिंह बेचैन-मेरा बचपन मेरे कंधों पर, तुलसीराम-मुर्दहिया आदि)। आत्मकथाएं ही नहीं अनगिनत कविताएं, नाटक, कहानियों में उपरोक्त चितण्रमिलते हैं, जिन पर शोध होना अभी बाकी है। स्वानुभूति की प्रामाणिकता का संज्ञान नहीं क्या पल्रेस लेखकों ने कभी कोई कहानी, कविता, नाटक चमरोटी, चेरी या अन्य किसी दलित बस्ती को केंद्र में रखकर लिखी है। लगता तो नहीं है। रचना की भौतिक स्थिति एवं उसमें रचनाकार का जीवन जीना रचना की गुणवत्ता पर असर डालता है। परंतु यह घटित होना अभी बाकी है। अगर ऐसा होता तो पल्रेस इसका ढिंढोरा अवश्य पीटता। जैसे कि जैसे ही दलित विमर्श का संदर्भ आता है, पल्रेस के सदस्य लेखक प्रेमचंद का डंडा निकाल कर दलित साहित्य को खारिज करने का विफल प्रयास करते हैं। दलित साहित्य की प्रामाणिकता एवं उसके सौन्दर्यशास्त्र पर प्रश्न उठाते हैं पर अपनी स्वानुभूति की प्रामणिकता का संज्ञान भी नहीं लेते। प्रगतिशील लेखकों ने अपनी वर्गीय अवधारणा के अंतर्गत कहीं न कहीं भारतीय सामाजिक संरचना , व्यक्तियों की सामाजिक भूमिका जो धर्मग्रंथों द्वारा स्थापित की गई एवं उनके द्वारा प्रस्तुत यथार्थ चितण्रतो दूर वंचित वर्ग के नायक-नायिकाओं को भी स्थापित नहीं किया। यहां फिर अपवाद हो सकते हैं। प्रगतिशीलता का दम भरने वाले लेखकों ने अम्बेडकर, फुले, नारायण गुरु, पेरियार, अथन्नकल्ली, जोगेन्द्रनाथ मण्डल, बिरसा मुंडा, सावित्री बाई फुले आदि दलितप्िाछड़े समाज के सुधारकों का कभी संज्ञान ही नहीं लिया। दलित साहित्य, धार्मिक एवं अब राजनीतिक आंदोलनों के कारण कुछ पल्रेस लेखकों एवं आलोचकों ने बाबा साहेब का संज्ञान तो लिया परंतु उनके व्यक्तित्व और अवदानों का आकलन बड़े ही संकुचित तरीके से किया। उनको दलित नेता तक सीमित कर दिया। यह रही उनकी प्रगतिशीलता। आखिर यह क्यों हुआ? देना होगा नई संकल्पनाओं को जन्म इसका उत्तर साफ है। सामाजिक संरचना में रचनाकार के आवंटित भूमिका एवं परिस्थिति उनकी रचनाओं को प्रभावित करती है। सामाजिक असमानता एवं जाति-श्रेणीबद्ध समाज में यह और भी सटीक बैठता है। ऐसी संरचना के कारण भिन्न-भिन्न सामाजिक श्रेणियों में जन्मे लोग सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, धार्मिक आदि संस्थाओं का अलग-अलग अनुभव रखते हैं। कुछ सामाजिक समूह इन संस्थाओं से अपने आपको वंचित पाते हैं तथा कुछ इसका पूर्ण लाभ उठाते हैं। सामाजिक संरचना में वंचना तथा उससे लाभ की स्थिति सामाजिक समूहों/व्यक्तियों की चेतना का सर्जन करती है। इसी सृजित चेतना का सहारा लेकर रचनाकार अपनी रचना को आकार देता है। एक ओर वर्णीय सामाजिक चेतना की स्थिति का लाभ दूसरी ओर आयातित मार्क्‍सवादी वर्गीय अवधारणा दोनों ने मिलकर पल्रेस के लेखकों की सोच को ही दूसरी दिशा दे दी। भारत में लोग सीधे वगरे में नहीं जातियों में पैदा होते हैं और जातियां वगरे की निर्मिति में अपना योगदान देती है। परंतु पल्रेस ने अभी तक कोई सिद्धांत या यंत्र नहीं बनाया जो यह माप सके कि जाति वर्ग बनाने में कितना प्रतिशत योगदान करती है। अत: पल्रेस आर्थिक वंचना सवरेपरि होती है, को ही अंतिम मान बैठा परंतु भारत में वंचना को अगर समझना है तो व्यक्ति या सामाजिक समूह की सामाजिक संरचना में परिस्थिति, उसकी/उनकी वंचना की ऐतिहासिकता, वंचना के बहुआयामी पक्ष, उनकी वंचना के लिए दोषी समूह तथा धार्मिक आधार आदि सभी को सम्मिलित करना होगा ताकि एक नवीन संकल्पना जन्म ले सके।

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